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अपनी करनी
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पता नहीं क्यों मैंने फूलमती की घुसी हुई आंखों और फूले हुए गालों और मोटे-मोटे होंठों की तरफ़ अपने दिल का ज्यादा खिंचाव देखा। आना-जाना बढ़ा और महीना भर भी गुज़रने न पाया था कि मैं उसकी मुहब्बत के जाल में पूरी तरह फंस गया। मुझे अब घर की सादा जिन्दगी में कोई आनन्द न आता था। लेकिन दिल ज्यों-ज्यों घर से उचटता जाता था त्यों-त्यों मैं पत्नी के प्रति प्रेम का प्रदर्शन और भी अधिक करता था। मैं उसकी फ़रमाइशों का इन्तजार करता रहता और कभी उसका दिल दुखानेवाली कोई बात मेरी ज़बान पर न आती । शायद मैं अपनी आन्तरिक उदासीनता को शिष्टाचार के पर्दे में छिपाना चाहता था।

धीरे-धीरे दिल की यह कैफियत भी बदल गयी और बीबी की तरफ़ से उदासीनता दिखायी देने लगी। घर में कपड़े नहीं हैं लेकिन मुझसे इतना न होता कि पूछ लूं। सच यह है कि मुझे अब उसकी खातिरदारी करते हुए एक डर-सा मालूम होता था कि कहीं उसकी खामोशी की दीवार टूट न जाय और उसके मन के भाव जवान पर न आ जायं। यहां तक कि मैंने गिरस्ती की जरूरतों की तरफ से भी आंखें बन्द कर ली। अब मेरा दिल और जान और रुपया-पैसा सब फूलमती के लिए था। मैं खुद कभी सुनार की दुकान पर न गया था लेकिन आजकल कोई मुझे पहर रात गये एक मशहूर सुनार के मकान पर बैठा हुआ देख सकता था। बज्राज़ की दुकान में भी मुझे रुचि हो गयी।

एक रोज शाम के वक्त रोज की तरह मैं आनन्दवाटिका में सैर कर रहा था और फूलमती सोलहो सिंगार किये, मेरी सुनहरी रुपहली भेंटों से लदी हुई, एक रेशमी साड़ी पहने बाग की क्यारियों में फूल तोड़ रही थी, बल्कि यों कहो कि अपनी चुटकियों में मेरे दिल को मसल रही थी। उसकी छोटी-छोटी आंखें उस वक्त हुस्न के नशे से फैल गयी थीं और उनमें शोखी और मुस्कुराहट की झलक नजर आती थी।

अचानक महाराजा साहब भी अपने कुछ दोस्तों के साथ मोटर पर सवार आ पहुंचे। मैं उन्हें देखते ही अगवानी के लिए दौड़ा और आदाब बजा लाया। बेचारी फूलमती महाराजा साहब को पहचानती थी लेकिन उसे एक घने कुंज के अलावा और कोई छिपने की जगह न मिल सकी। महाराजा साहब चले तो हौज की तरफ़ लेकिन मेरा दुर्भाग्य उन्हें उसी क्यारी पर ले चला जिधर फूलमती छिपी हुई थर-थर कांप रही थी।

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