पृष्ठ:गुप्त धन 1.pdf/२११

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अपनी करनी १९९

लेकिन मेरी पत्नी ने अपने प्रबन्ध-कौशल से घर की हालत खूब संभाल ली है।मैंने अपने मकान को रात के समय लालसाभरी आंखों से देखा-दरवाजे पर दो लालटेनें जल रही थीं और बच्चे इधर-उधर खेल रहे थे, हर तरफ़ सफाई और सुथरापन दिखायी देता था। मुझे कुछ अखबारों के देखने से मालूम हुआ कि महीनों तक मेरे पते-निशान के बारे में अखबारों में इश्तहार छपते रहे। लेकिन अब यह सूरत लेकर मैं वहां क्या जाऊँगा और यह कालिख-लगा मुंह किसको दिखाऊंगा। अब तो मुझे इसी गिरी-पड़ी हालत में जिन्दगी के दिन काटने हैं, चाहे रोकर काटूं या हँसकर। मैं अपनी हरकतों पर अब बहुत शर्मिन्दा हूं। अफ़सोस मैंने उन नेमतों की क़द्र न की, उन्हें लात से ठोकर मारी, यह उसी की सजा है कि आज मुझे यह दिन देखना पड़ रहा है। मैं वह परवाना हूं जिसकी खाक भी हवा के झोंकों से न बची।

-जमाना, सितंबर-अक्तूबर १९१४