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२०८ गुप्त धन

कर आतिथ्य-सत्कार करने का भाव तनिक भी न होता था। न उसमें शिष्टाचार था, न वैभव का प्रदर्शन जो ऐब है। इसके बजाय वहाँ बेजा रसूख की फ़िक्र और स्वार्थ की हवस साफ दिखायी देती थी और इस रसूख बनाने की कीमत काव्योचित अतिशयोक्ति के साथ उन गरीबों से वसूल की जाती थी जिनका बेकसी के सिवा और कोई हाथ पकड़नेवाला नहीं। उनके बात करने के ढंग में वह मुलायमियत और आजिज़ी बरती जाती थी, जिसका स्वाभिमान से बैर है और अक्सर ऐसे मौके आते थे, जब इन खातिरदारियों से तंग होकर दिल चाहता था कि काश इन खुशामदी आदमियों की सूरत न देखनी पड़ती।

मगर आज अपने फुटबाल की जबान से यह कैफियत सुनकर मेरी जो हालत हुई उसने साबित कर दिया कि रोज-रोज की खातिरदारियों और मीठी-मीठी बातों ने मुझ पर असर किये बिना नहीं छोड़ा था। मैं यह हुक्म देनेवाला ही था कि कुँअर सज्जनसिंह को हाजिर करो कि एकाएक मुझे खयाल आया इन मुफ्तखोरे चपरासियों के कहने पर एक प्रतिष्ठित आदमी को अपमानित करना न्याय नहीं है। मैंने अर्दली से कहा-बनियों के पास जाओ, नक़द दाम देकर चीजें लाओ और याद रखो कि मेरे पास कोई शिकायत न आये।

अर्दली दिल में मुझे कोसता हुआ चला गया।

मगर मेरे आश्चर्य की कोई सीमा न रही, जब वहाँ एक हफ्ते तक रहने पर भी कुँअर साहब से मेरी भेंट न हुई। अपने आदमियों और लश्करवालों की ज़बान से कुंअर साहब की ढिठाई, घमण्ड और हेकड़ी की कहानियाँ रोज़ सुना करता। और मेरे दुनिया देखे हुए पेशकार ने ऐसे अतिथि-सत्कार-शून्य गाँव में पड़ाव डालने के लिए मुझे कई बार इशारों से समझाने-बुझाने की कोशिश की। ग़ालिबन मैं पहला आदमी था जिससे यह भूल हुई थी और अगर मैंने जिले के नकशे के बदले लश्करवालों से अपने दौरे का प्रोग्राम बनाने में मदद ली होती तो शायद इस अप्रिय अनुभव की नौबत न आती। लेकिन कुछ अजब बात थी कि कुँअर साहब को बुरा-भला कहना मुझ पर उल्टा असर डालता था। यहाँ तक कि मुझे उस आदमी से मुकालात करने की इच्छा पैदा हुई जो सर्वशक्तिमान अफसरों से इतना ज्यादा अलग-थलग रह सकता है।

सुबह का वक्त था, मैं गढ़ी में गया। नीचे सरयू नदी लहरें मार रही थी।उस पार साखू का जंगल था। मीलों तक बादामी रेत, उस पर खरबूजे और तरबूज