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गुप्त धन
 

लोचनदास जब विजय करता हुआ शाही महल में दाखिल हो गया तो मलका की आँखें खुली। उसने कहा-हाय, वह तमाशे कहाँ गये, वह सुन्दर-सुन्दर दृश्य,वह लुभावने दृश्य कहाँ गायब हो गये ! मेरा राज जाये, पाट जाये लेकिन मैं यह सैर जरूर देखूंगी। मुझे आज मालूम हुआ है कि ज़िन्दगी में क्या-क्या मजे हैं !

सिपाही भी जागे। उन्होंने एक-स्वर से कहा-हम वही सैर और तमाशे देखेंगे, हमें लड़ाई-भिड़ाई से कुछ मतलब नहीं, हमको आजादी की परवाह नहीं,हम गुलाम होकर रहेंगे, पैरों में बेड़ियाँ पहनेंगे पर इन दिलफरेबियों के बगैर नहीं रह सकेंगे।

मलका मखमूर को अपनी सल्तनत का यह हाल देखकर बहुत दुख होता। वह सोचती, क्या इसी तरह सारा देश मेरे हाथ से निकल जायगा? अगर शाह मसरूर ने यों किनारा न कर लिया होता तो सल्तनत की यह हालत कभी न होती। क्या उन्हें यह कैफियतें मालूम न होंगी। यहाँ से दम-दम की खबरें उनके पास जाती हैं, मगर ज़रा भी जुम्बिश नहीं करते। कितने बेरहम हैं। खैर जो कुछ सर पर आयेगी सह लूंगी पर उनकी मिन्नत न करूँगी।

लेकिन जब वह उन आकर्षक गानों को सुनती और दृश्यों को देखती तो यह दुखदायी विचार भूल जाते, उसे अपनी जिन्दगी बहुत आनन्द की मालूम होती।

बुलहवस खाँ ने लिखा-मैं दुश्मनों से घिर गया हूँ, नफ़रत अली और कीन खाँ और ज्वाला सिंह ने चारों तरफ से हमला शुरू कर दिया है। जब तक और कुमक न आये, मैं मजबूर हूँ। पर मलका की फौज यह सैर और गाने छोड़कर जाने पर राजी न होती थी।

इतने में दो सूबेदारों ने फिर बग़ावत की। मिर्जा शमीम और रसराज सिंह दोनों एक होकर राजधानी पर चढ़े। मलका की फौज में अब न लज्जा थी न वीरता, गाने-बजाने और सैर-तमाशे ने उन्हें आरामतलब बना दिया था।बड़ी-बड़ी मुश्किलों से सज-सजाकर मैदान में निकले। दुश्मन की फौज इन्तजार करती खड़ी थी लेकिन न किसी के पास तलवार थी न बन्दूक, सिपाहियों के हाथों में फूलों के खुशनुमा गुलदस्ते थे, किसी के हाथ में इतर की शीशियाँ, किसी के हाथ में गुलाब के फ़ौवारे, कहीं लवेण्डर की बोतलें, कहीं मुश्क वगैरह की बहार सारा मैदान अत्तार की दूकान बना हुआ था। दूसरी तरफ रसराज की सेना थी। उन सिपाहियों के हाथों में सोने के तश्त थे, जरबफ्त के खानपोशों से ढके हुए, किसी में बर्फी और