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गुप्त धन
 

करे, उसकी चहारदीवारी से बाहर नहीं निकल सकता था। वहाँ सन्तरी और पहरेदार न थे लेकिन वहाँ की हवा में एक खिंचाव था। मलका के पैरों में न बेड़ियाँ थीं न हाथों में हथकड़ियाँ लेकिन शरीर का अंग-प्रत्यंग तारों से बँधा हुआ था । वह अपनी इच्छा से हिल भी न सकती थी। वह अब दिन के दिन बैठी हुई जमीन पर मिट्टी के घरौंदे बनाया करती और समझती यह महल है। तरह-तरह के स्वांग भरती और समझती दुनिया मुझे देखकर लट्टू हुई जाती है। पत्थर के टुकड़ों से अपना शरीर गूँघ लेती और समझती कि अब हूरें भी मेरे सामने मात हैं। वह दरख्तों से पूछती, मैं कितनी खूबसूरत हूँ? शाखों पर बैठी हुई चिड़ियों से पूछती, हीरे-जवाहरात का ऐसा गुलूबन्द तुमने देखा है ? मिट्टी के ठीकरों का अम्बार लगाती और आसमान से पूछती, इतनी दौलत तुमने देखी है ?

मालूम नहीं, इस हालत में कितने दिन गुज़र गये। मिर्जा-शमीम, लोचनदास वगैरह हरदम उसे घेरे रहते थे। शायद वह उससे डरते थे। ऐसा न हो, यह शाह मसरूर को कोई संदेशा भेज दे। क़ैद में भी उस पर भरोसा न था। यहाँ तक कि मलका की तवीयत इस कैद से बेजार हो गयी, वह निकल भागने की तदबीरें सोचने लगी।

इसी हालत में एक दिन मलका बैठी सोच रही थी, मैं क्या थी क्या हो गयी?जो मेरे इशारों के गुलाम थे वह अब मेरे मालिक हैं, मुझे जिम कल चाहते हैं बिठाते हैं जहाँ चाहते हैं घुमाते हैं। अफसोस मैंने शाह मसरूर का कहना न माना, यह उसी की सजा है। काश एक बार मुझे किसी तरह इस कैद से छुटकारा मिल जाता तो मैं चलकर उनके पैरों पर सिर रख देती और कहती, लौंडी की खता माफ कीजिए। मैं खून के आँसू रोती और उन्हें मना लाती और फिर कभी उनके हुक्म से इनकार न करती। मैंने इस नमकहराम बुलहवस खाँ की बातों में पड़कर उन्हें निर्वासित कर दिया, मेरी अक़्ल कहाँ चली गयी थी।

यह सोचते-सोचते मलका रोने लगी कि यकायक उसने देखा, सामने एक खिले हुए मुखड़ेवाला, गम्भीर पुरुष सादा कपड़े पहने खड़ा है। मलका ने आश्चर्यचकित होकर पूछा-आप कौन हैं ? यहाँ मैंने आपको कभी नहीं देखा।

पुरुष-हाँ, इस कैदखाने में मैं बहुत कम आता हूँ। मेरा काम है कि जब कैदियों की तबीयत यहाँ से बेज़ार हो तो उन्हें यहाँ से निकलने में मदद दूं।

मलका-आपका नाम?

पुरुष--संतोख सिंह।