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विजय
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मलका-आप मुझे इस कैद से छुटकारा दिला सकते हैं ?

संतोख-हाँ, मेरा तो काम ही यह है, लेकिन मेरी हिदायतों पर चलना पड़ेगा।

मलका-मैं आपके हुक्म से जौ भर भी इधर-उधर न करूंगी। खुदा के लिए मुझे यहाँ से जल्द से जल्द ले चलिए, मैं मरते दम तक आपकी शुक्रगुजार रहूँगी।

संतोख-आप कहाँ चलना चाहती हैं ?

मलका-मैं शाह मसरूर के पास जाना चाहती हूँ। आपको मालूम है वह आजकल कहाँ हैं ?

संतोख-हाँ, मालूम है, मैं उनका नौकर हूँ।उन्हीं की तरफ से मैं इस काम पर तैनात हूँ?

मलका-तो खुदा के वास्ते मुझे जल्द ले चलिए, मुझे अब यहाँ एक घड़ी रहना जी पर भारी हो रहा है।

संतोख -अच्छा तो यह रेशमी कपड़े और यह जवाहरात और सोने के जेवर उतारकर फेंक दो। बुलहवस ने इन्हीं जंजीरों से तुम्हें जकड़ दिया है। मोटे से मोटा कपड़ा जो मिल सके पहन लो। इन मिट्टी के घरौंदों को गिरा दो। इतर और गुलाब की शीशियाँ, साबुन की बट्टियाँ, और यह पाउडर के डब्बे सब फेंक दो।

मलका ने शीशियाँ और पाउडर के टिन तड़ाक-तड़ाक पटक दिये, सोने के जेवरों को उतारकर फेंक दिया कि इतने में बुलहवस खाँ धाड़ें मारकर रोता हुआ आकर खड़ा हुआ और हाथ बाँधकर कहने लगा—दोनों जहानों की मलका, मैं आपका नाचीज़ गुलाम हूँ, आप मुझसे नाराज़ हैं ? मलका ने बदला लेने के अपने जोश में मिट्टी के घरौंदों को पैरों से ठुकरा दिया। ठीकरों के अम्बार को ठोकरें मारकर बिखेर दिया। बुलहबस के शरीर का एक-एक अंग कट-कटकर गिरने लगा। वह बेदम होकर जमीन पर गिर पड़ा और दम के दम में जहन्नुम रसीद हुआ। संतोख सिंह ने मलका से कहा-देखा तुमने ? इस दुश्मन को तुम कितना डरावना समझती थीं, आन की आन में खाक में मिल गया।

मलका-काश मुझे यह हिकमत मालूम होती तो मैं कभी की आजाद हो जाती। लेकिन अभी और भी तो कितने ही दुश्मन हैं।

संतोख- उनको मारना इससे भी आसान है । चलो कर्णसिंह के पास, ज्यों ही