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गुप्त धन
 

सिंह जब रिआया और फौज को मसजिद में शुक्रिए की नमाज अदा करने के लिए ले गया तो बागियों को कोई उम्मीद न रही, वह निराश होकर चले गये।

जब इन कामों से फुर्सत हुई तो मलका ने संतोख सिंह से कहा-मेरे पास अलफाज नहीं हैं, और न अलफ़ाज में इतनी ताक़त है कि मैं आपके एहसानों का शुक्रिया अदा कर सकूँ। आपने मुझे गुलामी से छुटकारा दिया, मैं आखिरी दम तक आपका जस गाऊँगी। अब शाह मसरूर के पास मुझे ले चलिए, मैं उनकी सेवा करके अपनी उम्र बसर करना चाहती हूँ । उनसे मुंह मोड़कर मैंने बहुत जिल्लत और मुसीबत झेली। अब कभी उनके कदमों से जुदा न हूँगी।

संतोख सिंह-हाँ, हाँ, चलिए, मैं तैयार हूँ, लेकिन मंजिल सख्त है, घबराना मत ।

मलका ने हवाई जहाज मँगवाया। पर संतोख सिंह ने कहा-वहाँ हवाई जहाज़ का गुज़र नहीं है, पैदल चलना पड़ेगा। मलका ने मजबूर होकर हवाई जहाज वापस कर दिया और अकेले अपने स्वामी को मनाने चली ।

वह दिन भर भूखी-प्यासी पैदल चलती रही। आँखों के सामने अँधेरा छाने लगा,प्यास से गले में काँटे पड़ने लगे। काँटों से पैर छलनी हो गये। उसने अपने मार्ग- दर्शक से पूछा-अभी कितनी दूर है ?

संतोख-अभी बहुत दूर है। चुपचाप चली आओ। यहाँ बातें करने से मंजिल खोटी हो जाती है।

रात हुई, आसमान पर बादल छा गये। सामने एक नदी पड़ी, किश्ती का पता न था। मलका ने पूछा-किश्ती कहाँ है ?

संतोख ने कहा-नदी में चलना पड़ेगा, यहाँ किश्ती कहाँ है ।

मलका को डर मालूम हुआ लेकिन वह जान पर खेलकर दरिया में चल पड़ी। मालूम हुआ कि सिर्फ आँख का धोखा था। वह रेतीली जमीन थी। सारी रात संतोख सिंह ने एक क्षण के लिए भी दम न लिया । जब भोर का तारा निकल आया तो मलका ने रोकर कहा-अभी कितनी दूर है, मैं तो मरी जाती हूँ।

संतोख सिंह ने जवाब दिया-चुपचाप चली आओ।

मलका ने हिम्मत करके फिर कदम बढ़ाये। उसने पक्का इरादा कर लिया था कि रास्ते में मर ही क्यों न जाऊँ पर नाकाम न लौटूंगी। उस कैद से बचने के लिए वह कड़ी से कड़ी मुसीबतें झेलने को तैयार थी।

सूरज निकला, सामने एक पहाड़ नजर आया जिसकी चोटियां आसमान में