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विजय
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घुसी हुई थीं। संतोख सिंह ने पूछा-इसी पहाड़ी की सबसे ऊँची चोटी पर शाहमसरूर मिलेंगे, चढ़ सकोगी?

मलका ने धीरज से कहा-हाँ, चढ़ने की कोशिश करूंगी।

बादशाह से भेंट होने की उम्मीद ने उसके वेजान पैरों में पर लगा दिये। वह तेजी से कदम उठाकर पहाड़ पर चढ़ने लगी। पहाड़ के बीचों-बीच आते-आते वह थककर बैठ गयी, उसे ग़श आ गया। मालूम हुआ कि दम निकल रहा है। उसने निराश आँखों से अपने मित्र को देखा। संतोख सिंह ने कहा-एक दफा और हिम्मत करो, दिल में खुदा की याद करो। मलका ने खुदा की याद की। उसकी आँखें खुल गयीं। वह फुर्ती से उठी और एक ही हल्ले में चोटी पर जा पहुँची। उसने एक ठंडी सांस ली। वहाँ शुद्ध हवा में साँस लेते ही मलका को शरीर में एक नयी ज़िन्दगी का अनुभव हुआ। उसका चेहरा दमकने लगा। ऐसा मालूम होने लगा कि मैं चाहूँ तो हवा में उड़ सकती हूँ। उसने खुश होकर संतोख सिंह की तरफ देखा और आश्चर्य के सागर में डूब गयी। शरीर वही था, पर चेहरा शाह मसरूर का था। मलका ने फिर उसकी तरफ अचरज की आँखों से देखा। संतोख सिंह के शरीर पर से एक बादल का पर्दा हट गया और मलका को वहाँ शाह मसरूर खड़े नज़र आये-वही हलका पीला कुर्ता, वही गेरुए रंग की तहमद। उनके मुखमंडल से तेज की कांति बरस रही थी, माथा तारों की तरह चमक रहा था। मलका उनके पैरों पर गिर पड़ी।शाह मसरूर ने उसे सीने से लगा लिया।

-जमाना, अप्रैल १९१८