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गुप्त धन
 

मामूली नाचनेवाली, चाहे वह कितनी ही मीठी अदाओंवाली क्यों न हो, विजयगढ़ के मनोरंजन का केन्द्र बन जाय, यह बहुत बड़ा अन्याय था। आपस में मशविरे हुए और देश के पुरोहितों की तरफ़ से देश के मन्त्रियों की सेवा में इस खास उद्देश्य से एक शिष्टमण्डल उपस्थित हुआ। विजयगढ़ के आमोद-प्रमोद के कर्ताओं की ओर से भी आवेदनपत्र पेश होने लगे। अखबारों ने राष्ट्रीय अपमान और दुर्भाग्य के तराने छेड़े। साधारण लोगों के हल्कों में सवालों की बौछार होने लगी, यहां तक कि वजीर मजबूर हो गये, शीरीं बाई के नाम शाही फरमान पहुंचा-चूंकि तुम्हारे रहने से देश में उपद्रव होने की आशंका है इसलिए तुम फ़ौरन विजयगढ़ से चली जाओ। मगर यह हुक्म अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों, आपसी इकरारनामे और सभ्यता के नियमों के सरासर खिलाफ़ था । जयगढ़ के राजदूत ने, जो विजयगढ़ में नियुक्त था, इस आदेश पर आपत्ति की और शीरीं बाई ने आखिरकार उसको मानने से इनकार किया क्योंकि इससे उसकी आजादी और खुददारी और उसके देश के अधिकारों और अभिमान पर चोट लगती थी।

जयगढ़ के कूचे और बाज़ार खामोश थे। सैर की जगहें खाली। तफ़रीह और तमाशे बन्द। शाही महल के लम्बे-चौड़े सहन और जनता के हरे भरे मैदानों में आदमियों की भीड़ थी, मगर उनकी ज़बानें बन्द थीं और आंखें लाल। चेहरे का भाव कठोर और क्षुब्ध, त्योरियां चढ़ी हुईं, माथे पर शिकन, उमड़ी हुई काली घटा थी, डरावनी, खामोश, और बाढ़ को अपने दामन में छिपाये हुए।

मगर आम लोगों में एक बड़ा हंगामा मचा हुआ था, कोई सुलह का हामी था,कोई लड़ाई की मांग करता था, कोई समझौते की सलाह देता था, कोई कहता था कि छानबीन करने के लिए कमीशन बैठाओ। मामला नाजुक था, मौका तंग, तो भी आपसी बहस-मुबाहसों, बदगुमानियों, और एक-दूसरे पर हमलों का बाजार गर्म था। आधी रात गुज़र गयी मगर कोई फैसला न हो सका। पूंजी की संगठित शक्ति,उसकी पहुंच और रोब-दाब फ़ैसले की ज़बान बन्द किये हुए था।

तीन पहर रात जा चुकी थी, हवा नींद से मतवाली होकर अँगड़ाइयां ले रही थी और दरख्तों की आंखें झपकी जाती थीं। आकाश के दीपक भी झलमलाने लगे थे, दरबारी कभी दीवारों की तरफ़ ताकते थे, कभी छत की तरफ़। लेकिन कोई उपाय न सूझता था।