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वफ़ा का खंजर
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मेरी अँधेरी रात का चिराग़, मेरी ज़िन्दगी की उम्मीद, मेरी हस्ती का दारोमदार, मेरी आरजू की इन्तहा था, वह मेरी आंखों के सामने आग के भंवर में पड़ा हुआ है,और मैं हिल नहीं सकता। इस क़ातिल जंजीर को क्योंकर तोड़ दूं? इस वागी दिल को क्योंकर समझाऊं? मुझे मुंह में कालिख लगाना मंजूर है, मुझे जहन्नुम की मुसीबतें झेलना मंजूर है, मैं सारी दुनिया के गुनाहों का बोझ अपने सर पर लेने को तैयार हूं, सिर्फ इस वक्त मुझे गुनाह करने की, वफ़ा के पैमाने को तोड़ने की, नमकहराम बनने की तौफीक दे! एक लमहे के लिए मुझे शैतान के हवाले कर दे, मैं नमकहराम बनूंगा, दगाबाज़ बनूंगा, पर क़ौमफ़रोश नहीं बन सकता !

आह, जालिम सुरंगें उड़ाने की तैयारी कर रहे हैं। सिपहसालार ने हुक्म दे दिया। वह तीन आदमी तहखाने की तरफ़ चले। जिगर कांप रहा है, जिस्म कांप रहा है। यह आखिरी मौका है। एक लमहा और, बस फिर अँधेरा है और तवाही। हाय, मेरे ये बेवफ़ा हाथ-पांव अब भी नहीं हिलते,जैसे इन्होंने मुझसे मुंह मोड़ लिया हो। यह खून अब भी गरम नहीं होता। आह, वह धमाके की आवाज हुई, खुदा की पनाह, जमीन कांप उठी, हाय असकरी, असकरी, रुखसत, मेरे प्यारे बेटे, रुखसत, इस जालिम बेरहम बाप ने तुझे अपनी वफ़ा पर कुर्बान कर दिया! मैं तेरा बाप न था, तेरा दुश्मन था! मैंने तेरे गले पर छुरी चलायी। अब धुआं साफ़ हो गया। आह वह फ़ौज कहां है जो सैलाब की तरह बढ़ती आती थी और इन दीवारों से टकरा रही थी। खन्दकें लाशों से भरी हुई हैं और वह जिसका मैं दुश्मन था, जिसका कातिल, वह बेटा, वह मेरा दुलारा असकरी कहां है, कहीं नजर नहीं आता....आह....।'

-जमाना, नवम्बर १९१८