पृष्ठ:गुप्त धन 1.pdf/२५०

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मुबारक बीमारी

रात के नौ बज गये थे। एक युवती अंगीठी के सामने बैठी हुई आग फूंकती थी और उसके गाल आग के कुन्दनी रंग में दहक रहे थे। उसकी बड़ी-बड़ी नरगिसी आँखें दरवाजे की तरफ़ लगी हुई थीं। कभी चौंककर आंगन की तरफ ताकती, कभी कमरे की तरफ। फिर आनेवालों की इस देरी से त्योरियों पर बल पड़ जाते और आँखों में हलका-सा गुस्सा नजर आता। कमल पानी में झकोले खाने लगता।

इसी बीच आनेवालों की आहट मिली। कहार बाहर पड़ा खर्राटे ले रहा था। बूढ़े लाला हरनामदास ने आते ही उसे एक ठोकर लगाकर कहा-कम्बख्त, अभी शाम हुई है और अभी से लम्बी तान दी।

नौजवान लाला हरिदास घर में दाखिल हुए-चेहरा बुझा हुआ, चिन्तित । देवकी ने आकर उनका हाथ पकड़ लिया और गुस्से व प्यार की मिली हुई आवाज से बोली-आज इतनी देर क्यों हुई?

दोनों नये खिले हुए फूल थे-एक पर ओस की ताज़गी थी, दूसरा घूप से मुरझाया हुआ।

हरिदास- हाँ आज देर हो गयी, तुम यहाँ क्यों बैठी रहीं?

देवकी -क्या करती, आग बुझी जाती थी, खाना न ठण्डा हो जाता।

हरिदास-तुम जरा से काम के लिए इतनी देर आग के सामने न बैठा करो। बाज़ आया गरम खाने से।

देवकी-अच्छा कपड़े तो उतारो, आज इतनी देर क्यों की?

हरिदास-क्या बताऊँ, पिता जी ने ऐसा नाक में दम कर दिया है कि कुछ कहते नहीं बनता। इस रोज-रोज़ की झंझट से तो यही अच्छा है कि मैं कहीं और नौकरी कर लूं।

लाला हरनामदास एक आटे की चक्की के मालिक थे। उनकी जवानी के दिनों में आस-पास दूसरी चक्की न थी। उन्होंने खूब धन कमाया। मगर अब वह हालत न थी। चक्कियाँ कीड़े-मकोड़ों की तरह पैदा हो गयी थीं, नयी मशीनों और ईजादों के साथ। उनके काम करनेवाले भी जोशीले नौजवान थे, मुस्तैदी से काम