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गुप्त धन
 

करना मेरा धर्म है। मगर सिद्धान्तों के मामले में मैं उनसे क्या किसी से भी नहीं दब सकता।

इसी बीच कहार ने आकर कहा—लाला जी थाली माँगते हैं।

लाला हरनामदास हिन्दू रस्म-रिवाज के बड़े पाबन्द थे। मगर बुढ़ापे के कारण चौके के चक्कर से मुक्ति पा चुके थे। पहले कुछ दिनों तक जाड़ों में रात को पूरियाँ खाते रहे, अब कमजोरी के कारण पूरियाँ न हजम होती थी इसलिए चपातियाँ ही अपनी बैठक में मँगा लिया करते थे। मजबूरी ने वह कराया था जो हुज्जत और दलील के काबू से बाहर था।

हरिदास के लिए भी देवकी ने खाना निकाला। पहले तो वह हजरत बहुत दुखी नज़र आते थे, लेकिन बधार की खुशबू ने खाने के लिए चाव पैदा कर दिया था। अक्सर हम अपनी आँख और नाक से हाजमे का काम लिया करते हैं।

लाला हरनामदास रात को भले-चंगे सोये लेकिन अपने बेटे की गुस्ताखियाँ और कुछ अपने कारबार की सुस्ती और मन्दी उनकी आत्मा के लिए भयानक कष्ट का कारण हो गयीं और चाहे इसी उद्विग्नता का असर हो, चाहे बुढ़ापे का, सुबह होने से पहले उन पर लकवे का हमला हो गया। ज़बान बन्द हो गयी और चेहरा ऐंठ गया। हरिदास डाक्टर के पास दौड़ा। डाक्टर आये, मरीज़ को देखा और वोले—डरने की कोई बात नहीं। सेहत होगी मगर तीन महीने से कम न लगेंगे। चिन्ताओं के कारण यह हमला हुआ है इसलिए कोशिश करनी चाहिए कि वह आराम से सोयें, परेशान न हों और जबान खुल जाने पर भी जहाँ तक मुमकिन हो, बोलने से बचें।

बेचारी देवकी बैठी रो रही थी। हरिदास ने आकर उसको सान्त्वना दी, और फिर डाक्टर के यहाँ से दवा लाकर दी। थोड़ी देर में मरीज़ को होश आया, इधर-उधर कुछ खोजती हुई-सी निगाहों से देखा कि जैसे कुछ कहना चाहते हैं और फिर इशारे से लिखने के लिए काग़ज़ माँगा। हरिदास ने काग़ज़ और पेंसिल रख दी, तो बूढ़े लाला साहब ने हाथों को खूब सम्हालकर लिखा—इन्तज़ाम दीनानाथ के हाथ में रहे।

ये शब्द हरिदास के हृदय में तीर की तरह लगे। अफसोस ! अब भी मुझ पर भरोसा नहीं। यानी कि दीनानाथ मेरा मालिक होगा और मैं उसका गुलाम बनकर