पृष्ठ:गुप्त धन 1.pdf/२६२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
२५०
गुप्त धन
 

—जब हुजूर ही ने अभी तक आराम नहीं फ़रमाया तो गुलामों को क्योंकर नींद आती।

—मैं तुम्हें कुछ तकलीफ़ देना चाहता हूं।

—कहिए।

—तुम्हारे साथ पांच आदमी हैं, उन्हें लेकर जरा एक बार लश्कर का चक्कर लगा आओ। देखो, लोग क्या कर रहे हैं। अक्सर सिपाही रात को जुआ खेलते हैं। बाज आस-पास के इलाकों में जाकर खरमस्ती किया करते हैं। ज़रा होशियारी से काम करना।

मसरूर—मगर यहां मैदान खाली हो जायगा।

क़ासिम—मैं तुम्हारे आने तक खबरदार रहूंगा।

—जो मर्जी हुजूर।

क़ासिम—मैंने तुम्हें मोतबर समझकर यह खिदमत सुपुर्द की है, इसका मुआवजा, इंशाअल्लाह तुम्हें सरकार से अता होगा।

मसरूर ने दबी ज़बान से कहा—बन्दा आपकी यह चालें सब समझता है। इंशाअल्लाह सरकार से आपको भी इसका इनाम मिलेगा। और तब जोर से बोला— आपकी बड़ी मेहरबानी है।

एक लमहे में पांचों ख्वाजासरा लश्कर की तरफ़ चले। कासिम ने उन्हें जाते देखा। मैदान साफ़ हो गया। अब वह बेधड़क खेमे में जा सकता था। लेकिन अब कासिम को मालूम हुआ कि अन्दर जाना इतना आसान नहीं है जितना वह समझा था। गुनाह का पहलू उसकी नज़र से ओझल हो गया था। अब सिर्फ़ जाहिरी मुश्किलों पर निगाह थी।

कासिम दबे पांव शहजादी के खेमे के पास आया, हालांकि दबे पांव आने की जरूरत न थी। उस सन्नाटे में वह अगर दौड़ता हुआ चलता तो भी किसी को खबर न होती। उसने खेमे से कान लगाकर सुना, किसी की आहट न मिली। इत्मीनान हो गया। तब उसने कमर से चाकू निकाला और कांपते हुए हाथों से खेमे की दो-तीन रस्सियां काट डालीं। अन्दर जाने का रास्ता निकल आया। उसने अन्दर की तरफ़ झांका। एक दीपक जल रहा था। दो बांदियां फ़र्श पर लेटी हुई थीं और शहज़ादी एक मखमली गद्दे पर सो रही थी। क़ासिम की हिम्मत बढ़ी। वह सरककर अन्दर चला गया, और दबे पांव शहज़ादी के करीब जाकर उसके दिलफ़रेब हुस्न का