पृष्ठ:गुप्त धन 1.pdf/२६६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
२५४
गुप्त धन
 

को भूल न जाइएगा। मेरे दिल में उस मीठे सपने की याद हमेशा ताजा रहेगी, हरम की कैद में यही सपना दिल को तसकीन देता रहेगा, इस सपने को तोड़िए मत। अब खुदा के वास्ते यहाँ से जाइए, ऐसा न हो कि मसरूर आ जाय, वह एक ही जालिम है। मुझे अंदेशा है कि उसने आपको धोखा दिया, अजब नहीं कि यहीं कहीं छुपा बैठा हो, उससे होशियार रहिएगा। खुदा हाफ़िज़!

कासिम पर एक बेसुधी की-सी हालत छा गयी। जैसे आत्मा का गीत सुनने के बाद किसी योगी की होती है। उसे सपने में भी जो उम्मीद न हो सकती थी, वह पूरी हो गयी थी। गर्व से उसकी गर्दन की रगें तन गयीं, उसे मालूम हुआ कि दुनिया में मुझसे ज्यादा भाग्यशाली दूसरा नहीं है। मैं चाहूं तो इस रूप की बाटिका की बहार लूट सकता हूं, इस प्याले से मस्त हो सकता हूं। आह, वह कितनी नशीली कितनी मुबारक जिन्दगी होगी! अब तक कासिम की मुहब्बत ग्वाले का दूध थी, पानी से मिली हुई; शहजादी के दिल को तड़प ने पानी को जलाकर सच्चाई का रंग पैदा कर दिया। उसके दिल ने कहा—मैं इस रूप की रानी के लिए क्या कुछ नहीं कर सकता? कोई ऐसी मुसीबत नहीं है जो झेल न सकूँ, कोई ऐसी आग नहीं, जिसमें कूद न सकूँ. मुझे किसका डर है! बादशाह का? मैं बादशाह का गुलाम नहीं, उसके सामने हाथ फैलानेवाला नहीं, उसका मुहताज नहीं। मेरे जौहर की हर एक दरबार में कद्र हो सकती है। मैं आज इस गुलामी की जंजीर को तोड़ डालूंगा और उस देश में जा बसूंगा, जहां बादशाह के फ़रिश्ते भी पर नहीं मार सकते। हुस्न की नेमत पाकर अब मुझे और किसी चीज़ की इच्छा नहीं। अब अपनी आरजुओं का क्यों गला घोटूं? कामनाओं को क्यों निराशा का ग्रास बनने दूं? उसने उन्माद की-सी स्थिति में कमर से तलवार निकाली और जोश के साथ बोला—जब तक मेरे बाजुओं में दम है, कोई आपकी तरफ़ आंख उठाकर देख भी नहीं सकता। चाहे वह दिल्ली का बादशाह ही क्यों न हो! मैं दिल्ली के कूचे और बाजार में खून की नदी बहा दूंगा, सल्तनत की जड़ें हिला दूंगा, शाही तख्त को उलट-पलट कर रख दूंगा, और कुछ न कर सकूँगा तो मर मिटूंगा। पर अपनी आँखों से आपकी यह जिल्लत न देखूंगा।

शहजादी आहिस्ता-आहिस्ता उसके करीब आयी और बोली—मुझे आप पर पूरा भरोसा है, लेकिन आपको मेरी खातिर से जब्त और सब्र करना होगा।