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वासना की कड़ियाँ
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आपके लिए मैं महलसरा की तकलीफें और जुल्म सब सह लूंगी। आपकी मुहब्बत ही मेरी ज़िन्दगी का सहारा होगी। यह यकीन कि आप मुझे अपनी लौंडी समझते हैं, मुझे हमेशा सम्हालता रहेगा। कौन जाने तकदीर हमें फिर मिलाये।

क़ासिम ने अकड़कर कहा—आप दिल्ली जायें ही क्यों? हम सुबह होते-होते भरतपुर पहुंच सकते हैं।

शहजादी—मगर हिन्दोस्तान के बाहर तो नहीं जा सकते। दिल्ली की आंख का काँटा बनकर मुमकिन है हम जंगलों और वीरानों में जिन्दगी के दिन काटें पर चैन नसीब न होगा। असलियत की तरफ़ से आंखें न बन्द कीजिए, खुदा ने आपको वहादुरी दी है, पर तेगे इस्फ़हानी भी तो पहाड़ से टकराकर टूट ही जायगी।

कासिम का जोश कुछ धीमा हुआ। भ्रम का परदा नज़रों से हट गया। कल्पना की दुनिया में बढ़-वढ़कर बातें करना आदमी का गुण है। क़ासिम को अपनी वेबसी साफ़ दिखायी पड़ने लगी। बेशक मेरी यह लनतरानियां मज़ाक़ की चीज़ हैं। दिल्ली के शाह के मुकाबिले में मेरी क्या हस्ती है? उनका एक इशारा मेरी हस्ती को मिटा सकता है। हसरत-भरे लहजे में बोला—मान लीजिए, हमको जंगलों और वीरानों ही में जिन्दगी के दिन काटने पड़े तो क्या? मुहब्बत करनेवाले अंधेरे कोने में भी चमन की सैर का लुत्फ़ उठाते हैं। मुहब्बत में वह फ़कीरों और दरवेशों जैसा अलगाव है, जो दुनिया की नेमतों की तरफ़ आंख उठाकर भी नहीं देखता।

शहज़ादी—मगर मुझसे यह कब मुमकिन है कि अपनी भलाई के लिए आपको इन खतरों में डालूं? मैं शाहे दिल्ली के जुल्मों की कहानियां सुन चुकी हूं, उन्हें याद करके रोंगटे खड़े हो जाते हैं। खुदा वह दिन न लाये कि मेरी वजह से आपका बाल भी बांका हो। आपकी लड़ाइयों के चर्चे, आपकी खैरियत की खबरें, उस कैद में मुझको तसकीन और ताकत देंगी। मैं मुसीबतें झेलूंगी और हँस-हँसकर आग में जलूंगी और माथे पर बल न आने दूंगी। हां, मैं शाहे दिल्ली के दिल को अपना बनाऊंगी, सिर्फ आपकी खातिर से ताकि आपके लिए मौका पड़ने पर दो-चार अच्छी बातें कह सकू।

लेकिन कासिम अब भी वहां से न हिला। उसकी आरजूएं उम्मीद से बढ़कर पूरी होती जाती थीं, फिर हवस भी उसी अन्दाज़ से बढ़ती जाती थी। उसने सोचा