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गुप्त धन
 

अगर हमारी मुहब्बत की बहार सिर्फ कुछ लमहों की मेहमान है, तो फिर उन मुबा- रक लमहों को आगे की चिन्ता से क्यों बेमजा करें। अगर तक़दीर में इस हुस्न की नेमत को पाना नहीं लिखा है, तो इस मौके को हाथ से क्यों जाने दूं? कौन जाने फिर मुलाकात हो या न हो? यह मुहब्बत रहे या न रहे? बोला—शहज़ादी, अगर आपका यही आखिरी फैसला है, तो मेरे लिए सिवाय हसरत और मायूसी के और क्या चारा है? दुख होगा, कुदूंगा, पर सब्र करूंगा। अब एक दम के लिए यहां आकर मेरे पहलू में बैठ जाइए ताकि इस बेक़रार दिल को तस्कीन हो। आइए, एक लमहे के लिए भूल जाय कि जुदाई की घड़ी हमारे सर पर खड़ी है। कौन जाने यह दिन कब आयें? शान-शौकत ग़रीबों की याद भुला देती है, आइए एक घड़ी मिलकर बैठे! अपनी जुल्फ़ों को अम्बरी खुशबू से इस जलती हुई रूह को तरावट पहुंचाइए। यह बांहें, गलों की जंजीरें बन जायं। अपने बिल्लौर जैसे हाथों से प्रेम के प्याले भर-भरकर पिलाइए। साग़र के ऐसे दौर चलें कि हम छक जायं। दिलों पर सुरूर का ऐसा गाढा रंग चढ़े जिस पर जुदाई की तुर्शियों का असर न हो। वह रंगीन शराब पिलाइए जो इस झुलसी हुई आरजूओं की खेती को सींच दे और यह रूह की प्यास हमेशा के लिए बुझ जाये।

मए अर्ग्रवानी के दौर चलने लगे। शहजादी की बिल्लौरी हथेली में सुर्ख शराब का प्याला ऐसा मालूम होता था जैसे पानी की विल्लौरी सतह पर कमल का फूल खिला हो। क़ासिम दोनों दुनिया से बेखबर प्याले पर प्याले चढ़ाता जाता था जैसे कोई डाकू लूट के माल पर टूटा हुआ हो। यहां तक कि उसकी आंखें लाल हो गयीं, गर्दन झुक गयी, पी-पीकर मदहोश हो गया। शहजादी की तरफ़ वासना-भरी आंखों से ताकता हुआ बाँहें खोले बढ़ा कि घडियाल ने चार बजाये और कूच के डंके की दिल छेद देनेवाली आवाजें कान में आयीं। बाँहें खुली की खुली रह गयीं। लौंडियाँ उठ बैठी, शहजादी उठ खड़ी हुई और बदनसीब कासिम दिल की आरजूएं लिये खेमे से बाहर निकला, जैसे तक़दीर के फ़ौलादी पंजे ने उसे ढकेलकर बाहर निकाल दिया हो। जब अपने खेमे में आया तो दिल आरजूओं से भरा हुआ था। कुछ देर के बाद आरजूओं ने हवस का रूप भरा और अब बाहर निकला तो दिल हसरतों से पामाल था, हवस का मकड़ी-जाल उसकी रूह के लिए लोहे की जंजीर बना हुआ था।

शाम का सुहाना वक्त था। सुबह की ठण्डी-ठण्डी हवा के सागर में धीरे-