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वासना की कड़ियाँ
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धीरे लहरें उठ रही थीं। बहादुर, किस्मत का धनी कासिम मुलतान के मोर्चे को सर करके गर्व की मदिरा पिये उसके नशे में चूर चला आता था। दिल्ली की सड़कें बन्दनवारों और झंडियों से सजी हुई थीं। गुलाव और केवड़े की खुशबू चारों तरफ़ उड़ रही थी। जगह-जगह नौबतखाने अपना सुहाना राग अलाप रहे थे। शहरपनाह के अन्दर दाखिल होते ही सारे शहर में एक शोर मच गया। तोपों ने अगवानी की धनगरज सदाएँ बुलन्द की। ऊपर झरोखों में नगर की सुन्दरियां सितारों की तरह चमकने लगीं। कासिम पर फूलों की बरखा होने लगी। वह शाही महल के करीब पहुंचा तो बड़े-बड़े अमीर-उमरा उसकी अगवानी के लिए कतार बांधे खड़े थे। इस शान से वह दीवाने खास तक पहुंचा। उसका दिमाग इस वक्त सातवें आसमान पर था। चाव-भरी आंखों से ताकता हुआ बादशाह के पास पहुंचा और शाही तख्त को चूमलिया । बादशाह मुस्कराकर तख्त से उतरे और बाँहें खोले हुए क़ासिम को सीने से लगाने के लिए बढ़े। क़ासिम आदर से उनके पैरों को चूमने के लिए झुका कि यकायक उसके सिर पर एक विजली-सी गिरी। बादशाह का तेज़ खंजर उसकी गर्दन पर पड़ा और सर तन से जुदा होकर अलग जा गिरा। खून के फ़ौवारे बादशाह के क़दमों की तरफ़, तख्त की तरफ़ और तख्त के पीछे खड़े होनेवाले मसरूर की तरफ़ लपके, गोया कोई झल्लाया हुआ आग का सांप है।

घायल शरीर एक पल में ठंडा हो गया। मगर दोनों आंखें हसरत की मारी हुई दो मूरतों की तरह देर तक दीवारों की तरफ़ ताकती रहीं। आखिर वह भी बन्द हो गयीं। हवस ने अपना काम पूरा कर दिया। अब सिर्फ हसरत बाक़ी थी जो बरसों तक दीवाने खास के दरोदीवार पर छायी रही और जिसकी झलक अभी तक कासिम के मजार पर घास-फूस की सूरत में नज़र आती है।

—'प्रेम बत्तीसी' से