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गुप्त धन
 


उसकी अगवानी के लिए निकल पड़े। सारा शहर उमड़ आया । लोग सिपाहियों को गले लगाते थे और उन पर फूलों की बरखा करते थे कि जैसे बुलबुलें थीं जो बहेलिये के पंजे से रिहाई पाने पर बाग़ में फूलों को चूम रही थीं। लोग शेख मखमूर के पैरों की धूल माथे से लगाते थे और सरदार नमकखोर के पैरों पर खुशी के आँसू बहाते थे।

अब मौका था कि मसऊद अपना जोगिया भेस उतार फेंके और ताजोतख्त का दावा पेश करे। मगर जब उसने देखा कि मलिका शेर अफ़गन का नाम हर आदमी की जुबान पर है तो खामोश हो रहा । वह खूब जानता था कि अगर मैं अपने दावे को साबित कर दूं तो मलिका का दावा खत्म हो जायगा। मगर तब भी यह नामुमकिन था कि सख्त मारकाट के बिना यह फैसला हो सके । एक पुरजोश और आरजूमन्द दिल के लिए इस हद तक जब्त' करना मामूली बात न थी। जबसे उस ने होश संभाला, यह ख्याल कि मैं इस मुल्क का बादशाह हूँ, उसके रगरेशे घुल गया था। शाह बामुराद की वसीयत' उसे एक दम को भी न भूलती थी। दिन को वह वादशाहत के मनसूबे बाँधता और रात को बादशाहत के सपने देखता। यह यकीन कि मैं वादशाह हूँ, उसे बादशाह बनाये हुए था । अफ़सोस, आज वह मंसूबे टूट गये और वह सपना तितर-बितर हो गया। मगर मसऊद के चरित्र में मर्दाना जब्त अपनी हद पर पहुंच गया था। उसने उफ़ तक न की, एक ठंडी आह भी न भरी, बल्कि पहला आदमी जिसने मलिका के हाथों को चूमा और उसके सामने सर झुकाया, वह फ़कीर मखमूर था। हाँ, ठीक उस वक्त जब कि वह मलिका के हाथ को चूम रहा था, उसकी जिन्दगी भर को लालसाएँ आँसू की एक बूंद बनकर मलिका की मेंहदी-रची हथेली पर गिर पड़ी कि जैसे मसऊद ने अपनी लालसा का मोती मलिका को सौंप दिया। मलिका ने हाथ खींच लिया और फ़क़ीर मखमूर के चेहरे पर मुहब्बत से भरी हुई निगाह डाली। जब सल्तनत के सब दरबारी भेंट दे चुके, तोपों को सलामियाँ दनने लगीं, शहर में धूमधाम का बाजार गर्म हो गया और खुशियों के जलसे चारो तरफ़ नजर आने लगे।

राजगद्दी के तीसरे दिन मसऊद खुदा की इबादत में बैठा हुआ था कि मलिका शेर अफ़गन अकेले उसके पास आयी और बोली—मसऊद, मैं एक नाचीज तोहफा तुम्हारे लिए लायी हूँ और वह मेरा दिल है। क्या तुम उसे मेरे हाथ से कबूल करोगे? मसऊद अचम्भे से ताकता रह गया, मगर जब मलिका की आँखें मुहब्बत के नशे में डूबी हुई पायीं तो चाव के मारे उठा और उसे सीने से लगाकर बोला—मैं तो