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शोक का पुरुस्कार


आज तीन दिन गुज़र गये। शाम का वक्त था। मैं युनिवर्सिटी हाल से खुश-खुश चला आ रहा था। मेरे सैकड़ों दोस्त मुझे वधाइयां दे रहे थे। मारे खुशी के मेरी बाँछे खिली जाती थीं। मेरी ज़िन्दगी की सबसे प्यारी आरजू कि मैं एम० ए० पास हो जाऊँ, पूरी हो गयी थी और ऐसी खूबी से जिसकी मुझे तनिक भी आशा न थी। मेरा नम्बर अव्वल था। वाइस चान्सलर साहब ने खुद मुझसे हाथ मिलाया था और मुस्कराकर कहा था कि भगवान तुम्हें और भी बड़े कामों की शक्ति दे। मेरी खुशी की कोई सीमा न थी। मैं नौजवान था, सुन्दर था, स्वस्थ था, रुपये पैसे की त मुझे इच्छा थी और न कुछ कमी, माँ-बाप बहुत कुछ छोड़ गये थे। दुनिया में सच्ची खुशी पाने के लिए जिन चीजों की जरूरत है वह सब मुझे प्राप्त थीं। और सबसे बढ़कर पहलू में एक हौसलामन्द दिल था जो ख्याति प्राप्त करने के लिए अधीर हो रहा था।

घर आया, दोस्तों ने यहाँ भी पीछा न छोड़ा, दावत की ठहरी। दोस्तों की खातिर-तवाज़ो में बारह बज गये, लेटा तो वरबस खयाल मिस लीलावती की तरफ़ जा पहुँचा जो मेरे पड़ोस में रहती थी और जिसने मेरे साथ वी० ए० का डिप्लोमा हासिल किया था। भाग्यशाली होगा वह व्यक्ति जो मिस लीला को ब्याहेगा, कैसी सुन्दर है! कितना मीठा गला है! कैसा हँसमुख स्वभाव! मैं कभी-कभी उसके यहाँ प्रोफ़ेसर साहब से दर्शनशास्त्र में सहायता लेने के लिए जाया करता था। वह दिन शुभ होता था जब प्रोफेसर साहब घर पर न मिलते थे। मिस लीला मेरे साथ बड़े तपाक से पेश आती और मुझे ऐसा मालूम होता था कि मैं ईसा मसीह की शरण में आ जाऊँ तो उसे मुझे अपना पति बना लेने में आपत्ति न होगी। वह शेली, बायरन और कीट्स की प्रेमी थी और मेरी रुचि भी बिलकुल उसी के समान थी। हम जब अकेले होते तो अक्सर प्रेम और प्रेम के दर्शन पर बातें करने लगते और उसके मुंह से भावों में डूबी हुई बातें सुन-सुनकर मेरे दिल में गुदगुदी पैदा होने लगती थी। मगर अफ़सोस मैं अपना मालिक न था। मेरी शादी एक ऊंचे घराने में कर दी गयी थी और अगरचे मैंने अब तक अपनी बीवी की