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गुप्त धन
 


नूरत भी न देखी थी मगर मुझे पूरा-पूरा विश्वास था कि मुझे उसकी संगत में वह आनन्द नहीं मिल सकता जो मिस लीला की संगत में सम्भव है। शादी हुए दो साल हो चुके थे मगर उसने मेरे पास एक खत भी न लिखा था। मैंने दो-तीन खत लिखे भी, मगर किसी का जवाब न मिला। इससे मुझे शक हो गया था कि उसकी तालीम भी यों ही-सी है।

आह! क्या मैं इसी लड़की के साथ जिन्दगी बसर करने पर मजबूर हूँगा? . . . इस सवाल ने मेरे उन तमाम हवाई किलों को ढा दिया जो मैंने अभी-अभी बनाये थे। क्या मैं मिस लीला से हमेशा के लिए हाथ धो लूं? नामुमकिन है। मैं कुमुदिनी को छोड़ दूंगा, मैं अपने घरवालों से नाता तोड़ लूंगा, मैं बदनाम हूँगा, परेशान हूँगा, मगर मिस लीला को जरूर अपना बनाऊँगा।

इन्हीं खयालों के असर में मैंने अपनी डायरी लिखी और उसे मेज पर खुला छोड़कर बिस्तर पर लेट रहा और सोचते-सोचते सो गया।

सवेरे उठकर देखता हूँ तो बाबू निरंजनदास मेरे सामने कुर्सी पर बैठे हैं। उनके हाथ में डायरी थी जिसे वह ध्यानपूर्वक पढ़ रहे थे। उन्हें देखते ही मैं बड़े चाव से लिपट गया। अफसोस, अब उस देवोपम स्वभाववाले नौजवान की सूरत देखनी न नसीब होगी। अचानक मौत ने उसे हमेशा के लिए हमसे अलग कर दिया। कुमुदिनी के सगे भाई थे, बहुत स्वस्थ, सुन्दर और हँसमुख, उम्र मुझसे दो ही चार साल ज्यादा श्री, ऊँचे पद पर नियुक्त थे, कुछ दिनों से इसी शहर में तबदील होकर आ गये थे। मेरी और उनकी गाढ़ी दोस्ती हो गयी थी। मैंने पूछा-क्या तुमने डायरी पढ़ ली?

निरंजन—हाँ।

मैं—मगर कुमुदिनी से कुछ न कहना ।

निरंजन—बहुत अच्छा, न कहूँगा।

मैं—इस वक्त किसी सोच में हो। मेरा डिप्लोमा देखा?

निरंजन—घर से खत आया है, पिता जो बीमार हैं, दो-तीन दिन में जानेवाला हूं।

मैं—शौक से जाइए, ईश्वर उन्हें जल्द स्वस्थ करे।

निरंजन—तुम भी चलोगे? न मालूम कसा पड़े, कैसा न पड़े।

मैं—मुझे तो इस वक्त माफ़ कर दो।

निरंजनदास यह कहकर चले गये। मैंने हजामत बनायो, कपड़े बदले और