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शोक का पुरुस्कार
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मेहर सिंह—मुझ जैसे जाहिल गंँवार के साथ शादी करना कोई औरत पसंद ना करेगी।

मैं—बहुत कम ऐसे नौजवान होंगे जो तुमसे ज्यादा लायक हों या तुमसे ज्यादा समझ रखते हों।

मेहर सिंह ने मेरी तरफ़ अचम्भे से देखकर कहा—आप दिल्लगी करते हैं।

मैं—दिल्लगी नहीं, मैं सच कहता हूँ। मुझे खुद आश्चर्य होता है कि इतने दिनों में तुमने इतनी योग्यता क्योंकर पैदा कर ली। अभी तुम्हें अंग्रेजी शुरू किये तीन बरस से ज्यादा नहीं हुए।

मेहर सिंह—क्या मैं किसी पढ़ी-लिखी लेडी को खुश रख सकूँगा।

मैं—(जोश से) बेशक!

गर्मी का मौसम था। मैं हवा खाने शिमले गया हुआ था। मेहर सिंह भी मेरे साथ था। वहाँ मैं बीमार पड़ा। चेचक निकल आयी। तमाम जिस्म में फफोले पड़ गये। पीठ के बल चारपाई पर पड़ा रहता। उस वक्त मेहर सिंह ने मेरे साथ जो-जो एहसान किये वह मुझे हमेशा याद रहेंगे। डाक्टरों की सख्त मनाही थी कि वह मेरे कमरे में न आये। मगर मेहर सिंह आठों पहर मेरे ही पास बैठा रहता। मुझे खिलाता-पिलाता, उठाता-विठाता। रात-रात भर चारपाई के करीब बैठकर जागते रहना मेहर सिंह ही का काम था। सगा भाई भी इससे ज्यादा सेवा नहीं कर सकता था। एक महीना गुजर गया । मेरी हालत रोज़-ब-रोज़ बिगड़ती जाती थी। एक रोज़ मैंने डाक्टर को मेहर सिंह से कहते हुए सुना कि इनकी हालत नाजुक हैं। मुझे यकीन हो गया कि अब न वचूंगा, मगर मेहर सिंह कुछ ऐसी दृढ़ता से मेरी सेवा-शुश्रूषा में लगा हुआ था कि जैसे वह मुझे जबर्दस्ती मौत के मुँह से बचा लेगा। एक रोज शाम के वक्त मैं कमरे में लेटा हुआ था कि किसी के सिसकी लेने की आवाज आयी। वहाँ मेहर सिंह को छोड़कर और कोई न था। मैंने पूछा—मेहर सिंह, मेहर सिंह, तुम रोते हो!

मेहर सिंह ने जब्त करके कहा—नहीं, रोऊँ क्यों, और मेरी तरफ़ बड़ी दर्द-भरी आँखों से देखा।

मैं—तुम्हारे सिसकने की आवाज़ आयी..।