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गुप्त धन
 


मेहर सिंह—वह कुछ बात न थी। घर की याद आ गयी थी।

मैं—सच वोलो।

मेहर सिंह की आँखें फिर डबडबा आयीं। उसने मेज़ पर से आइना उठाकर मेरे सामने रख दिया। हे नारायण! मैं खुद अपने को पहचान न सका। चेहरा इतना ज्यादा बदल गया था। रंगत बजाय सुर्ख के सियाह हो रही थी और चेचक के बदनुमा दागों ने सूरत बिगाड़ दी थी। अपनी यह बुरी हालत देखकर मुझसे भी जब्त न हो सका और आँखें डबडबा गयीं । वह सौन्दर्य जिस पर मुझे इतना गर्व था बिलकुल विदा हो गया था।

मैं शिमले से वापस आने की तैयारी कर रहा था। मेहर सिंह उसी रोज मुझसे विदा होकर अपने घर चला गया था। मेरी तबीयत बहुत उचाट हो रही थी। असबाब सब बँध चुका था कि एक गाड़ी मेरे दरवाजे पर आकर रुकी और उसमें से कौन उतरा? मिस लीला! मेरी आँखों को विश्वास न हो रहा था, चकित होकर ताकने लगा। मिस लीलावती ने आगे बढ़कर मुझे सलाम किया और हाथ मिलाने को बढ़ाया। मैंने भी बौखलाहट में हाथ तो बढ़ा दिया पर अभी तक यह यकीन नहीं हुआ था कि मैं सपना देख रहा हूँ या हकीकत है। लीला के गालों पर वह लाली न थी न वह चुलबुलापन बल्कि वह वहुत गम्भीर और पीली-पीली-सी हो रही थी। आखिर मेरी हैरत कम न होते देखकर उसने मुस्कराने की कोशिश करते हुए कहा—तुम कैसे जेण्टिलमैन हो कि एक शरीफ लेडी को बैठने के लिए कुर्सी भी नहीं देते!

मैंने अन्दर से कुर्सी लरकर उसके लिए रख दी, मगर अभी तक यही समझ रहा था कि सपना देख रहा हूँ।

लीलावती ने कहा—शायद तुम मुझे भूल गये।

मैं—भूल तो उम्र भर नहीं सकता मगर आँखों को एतबार नहीं आता।

लीला—तुम तो बिलकुल पहचाने नहीं जाते।

मैं—तुम भी तो वह नहीं रहीं। मगर आखिर यह भेद क्या है, क्या तुम स्वर्ग से लोट आयीं।

लीला—मैं तो नैनीताल में अपने मामा के यहाँ थी।

मैं—और वह चिट्ठी मुझे किसने लिखी थी और तार किसने दिया था?