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विक्रमादित्य का तेगा


बहुत ज़माना गुज़रा एक रोज़ पेशावर के मौजे माहनगर में प्रकृति की एक आश्चर्यजनक लीला दिखायी पड़ी। अंधेरी रात थी, बस्ती से कुछ दूर बरगद के एक छाँहदार पेड़ के नीचे एक आग की लौ दिखायी पड़ी और एक झलमलाते हुए चिराग की तरह नज़र आती रही। गाँव में बहुत जल्द यह खबर फैल गयी। वहाँ के रहनेवाले यह विचित्र दृश्य देखने के लिए यहाँ-वहाँ इकट्ठा हो गये। औरतें जो खाना पका रही थीं हाथों में गूंथा हुआ आटा लपेटे बाहर निकल आयीं। बूढ़ों ने बच्चों को कंधे पर बिठा लिया और खांसते हुए आ खड़े हुए। नवेली बहुएँ लाज के मारे बाहर न आ सकीं मगर दरवाज़ों की दरारों से झांक-झाँककर अपने बेकरार दिलों को तसकीन देने लगीं। उस गुम्बदनुमा पेड़ के नीचे अँधेरे के उस अथाह समुन्दर में रोशनी का यह धुंबला शोला पाप के बादलों से घिरी हुई आत्मा का सजीव उदाहरण पेश कर रहा था।

टेकसिंह ने ज्ञानियों की तरह सिर हिलाकर कहा—मैं समझ गया, भूतों की सभा हो रही है।

पंडित चेतराम ने विद्वानों के समान विश्वास के साथ कहा—तुम क्या जानो मैं तह पर पहुँच गया। साँप मणि छोड़कर चरने गया है। इसमें जिसे शक हो जाकर देख आये।

मुंशी गुलाबचन्द्र बोले—इस वक्त जो वहाँ जाकर मणि को उठा लाये, उसके राजा होने में शक नहीं। मगर जान जोखिम है।

प्रेमसिंह एक बूढ़ा जाट था। वह इन' महात्माओं की बातें बड़े ध्यान, से सुन रहा था।

प्रेमसिंह दुनिया में बिलकुल अकेला था। उसकी सारी उम्र लड़ाइयों में खर्च हुई थी। मगर जब जिन्दगी की शाम आयी और वह सुबह की जिन्दगी के टूटे-फूटे झोपड़े में फिर आया तो उसके दिल में एक अजीब ख्वाहिश पैदा हुई।