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गुप्त धन
 


अफसोस, दुनिया में मेरा कोई नहीं! काश मेरे भी कोई बच्चा होता! जो ख्वाहिश शाम के वक्त चिड़ियों को घोंसले में खींच लाती है और जिस ख्वाहिश से वेकरार होकर जानवर शाम को अपने थानों की तरफ चलते हैं, वही ख्वाहिश प्रेमसिंह के दिल में मौजे मारने लगी! ऐसा कोई नहीं, जो सुबह वक्त दादा कहकर उसके गले से लिपट जाय। ऐसा कोई नहीं, जिसे वह खाने के वक्त कौर वना-बनाकर खिलाये। ऐसा कोई नहीं, जिसे वह रात के वक्त लोरियाँ सुना-सुनाकर सुलाये। यह आकांक्षाएँ प्रेमसिंह के दिल में कभी न पैदा हुई थीं। मगर सारे दिन का अकेलापन इतना उदास करनेवाला नहीं होता जितना शाम का।

एक दिन प्रेमसिंह बाजार गया हुआ था। रास्ते में उसने देखा कि एक घर में आग लगी हुई है। आग के ऊँचे-ऊँचे डरावने शोले हवा में अपने झण्डे लहरा रहे और एक औरत दरवाजे पर खड़ी सर पीट-पीटकर रो रही है। यह बेचारी विधवा स्त्री थी, उसका बच्चा अन्दर सो रहा था कि घर में आग लग गयी। वह दौड़ी थी कि गाँव के आदमियों को आग बुझाने के लिए बुलाये कि इतने में आग ने जोर पकड़ लिया और अब तमाम जलते हुए शोलों का उमड़ा हुआ दरिया उसे उसके प्यारे बच्चे से अलग किये हुए था। प्रेमसिंह के दिल में उस औरत की दर्दनाक आहे चुभ गयीं। वह बेबड़क आग में घुस गया और सोते हुए बच्चे को गोद में लेकर बाहर निकल आया। विधवा स्त्री ने बच्चे को गोद में ले लिया और उसके कोमल गालों को बार-बार चूमकर आँखों में आँसू भर लायी और बोली—महाराज, तुम जो कोई हो, मैं आज अपना प्यारा बच्चा तुम्हें भेंट करती हूँ। तुम्हें ईश्वर ने और भी लड़के दिये होंगे, उन्हीं के साथ इस अनाथ की भी खबर लेते रहना। तुम्हारे दिल में क्या है, मेरा सब कुछ अग्नि देवी ने ले लिया, अब इस तन के कपड़े के सिवा मेरे पास और कोई चीज नहीं। मैं मजदूरी करके अपना पेट पाल लूंगी। यह बच्चा अब तुम्हारा है।

प्रेमसिंह की आँखें डबडबा गयीं, बोला—बेटी, ऐसा न कहो, तुम मेरे घर चलो और ईश्वर ने जो कुछ रूखा-सूखा दिया है, वह खाओ। मैं भी दुनिया में बिल- कुल अकेला हूँ, कोई पानी देनेवाला नहीं है। क्या जाने परमात्मा ने इसी बहाने से हमलोगों को मिलाया हो। शाम के वक्त जब प्रेमसिंह घर लौटा तो उसकी गोद में एक हँसता हुआ फूल जैसा बच्चा था और पीछे-पीछे एक पीली और मुरझायी हुई औरत। आज प्रेमसिंह का घर आबाद हुआ। आज से उसे किसी ने शाम के वक्त नदी के किनारे खामोश बैठे नहीं देखा।