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विक्रमादित्य का तेगा
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इसी बच्चे के लिए साँप का मणि लाने का निश्चय करके प्रेमसिंह आधी रात के वक्त कमर से तलवार लगाये, चौक-चौंककर क़दम रखता, बरगद के पेड़ की तरफ चला।

जब पेड़ के नीचे पहुंचा तो मणि की दमक ज्यादा साफ नजर आने लगी। मगर साँप का कहीं पता न था। प्रेमसिंह बहुत खुश हुआ, समझा, शायद साँप कहीं चरने गया है। मगर जब मणि को लेने के लिए हाथ बढ़ाया तो वहाँ साफ जमीन के सिवाय और कोई चीज न दिखायी दी। बढ़े जाट का कलेजा सन से हो गया और बदन के रोंगटे खड़े हो गये। यकायक उसे अपने सामने कोई चीज लटकती हुई दिखायी दी। प्रेमसिंह ने तेग़ा खींच लिया और उसकी तरफ लपका मगर देखा तो वह बरगद की जदा थी। अव प्रेमसिंह का डर बिलकुल दूर हो गया। उसने उस जगह को जहाँ से रोशनी की लौ निकल रही थी, अपनी तलवार से खोदना शुरू किया। जब एक बित्ता जमीन खुद गयी तो तलवार किसी सस्त चीज से टकरायी और लौ भभक उठी। यह एक छोटा-सा तेगा था मगर प्रेमसिंह के हाथ में आते ही उसकी लपट' जैसी चमक गायब हो गयी।

यह एक छोटा-सा तेगा था, मगर बहुत आबदार ! उसकी मूठ में अनमोल जवाहरात जड़े हुए थे और मूठ के ऊपर 'विक्रमादित्य' खुदा हुआ था। यह विक्रमादित्य का तेग़ा था, उस विक्रमादित्य का जो भारत का सूर्य बनकर चमका, जिसके गुन अबतक घर-घर गाये जाते हैं। इस तेगे ने भारत के अमर कालिदास की सोहबतें देखी हैं। जिस वक्त विक्रमादित्य रातों को देश बदलकर दुख-दर्द की कहानी अपने कानों से सुनने और अत्याचारों की लीला अपनी संवेदनशील आँखों से देखने के लिए निकलते थे, तो यही आबदार तेगा उनके बगल की शोभा हुआ करता था। जिस दया और न्याय ने विक्रमादित्य का नाम अब तक जिन्दा रक्खा है, उसमें यह तेग़ा भी उनका हमदर्द और शरीक था। यह उनके साथ उस राजसिंहासन पर शोभायमान होता था जिस पर राजा भोज़ को भी बैठना नसीब न हुआ।

इस तेरो में गजब की चमक थी। बहुत ज़माने तक जमीन के नीचे दफन रहने पर भी उस पर जंग का नाम न था। अँधेरे घरों में उससे उजाला हो जाता था। रात भर चमकते हुए तारे की तरह जगमगाता रहता। जिस तरह चाँद बादलों के