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विक्रमादित्य का तेगा
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सजा हुआ था और गाँव के बड़े लोग बैठे हुए इस महत्वपूर्ण प्रश्न पर बहस कर रहे थे कि महाराजा रनजीतसिंह की सेवा में कौन-सी भेंट पेश की जाय । आज महाराज ने इस गाँव को अपने क़दमों से रोशन किया है, तो क्या इस गाँव के बसनेवाले महाराज के क़दमों को न चूमेंगे! ऐसे शुभ अवसर कहाँ आते हैं। सब लोग सर झुकाये चिन्तित बैठे थे। किसी की अक़ल कुछ काम न करती थी। वहाँ अनमोल जवाहरात की किश्तियाँ कहाँ ? पूरे घंटे भर तक किसी ने सर न उठाया। यकायक बूढ़ा प्रेमसिंह खड़ा हो गया और बोला—अगर आप लोग पसन्द करें तो मैं विक्रमा-दित्य की तलवार नजराने के लिए दे सकता हूँ।

इतमा सुनते ही सब के सब आदमी खुशी से उछल पड़े और एक हुल्लड़-सा मच गया। इतने में एक मुसाफिर काली कमली ओढ़े चौपाल के अन्दर आया और हाथ उठाकर बोला—भाइयो, वाह गुरु की जय!

चेतराम बोले-तुम कौन हो?

मुसाफिर—राहगीर हूँ, पेशावर जाना है। रात ज्यादा आ गयी है इसलिए यहीं लेट रहूँगा।

टेकसिंह—हाँ-हाँ आराम से सोओ। चारपाई की जरूरत हो तो मँगा दूँ?

मुसाफिर—नहीं, आप तकलीफ़ न करें, मैं इसी टाट पर लेट रहूँगा। अभी आप लोग विक्रमादित्य की तलवार की कुछ बातचीत कर रहे थे। यही सुनकर चला आया। वर्ना वाहर ही पड़ा रहता। क्या यहाँ किसी के पास विक्रमादित्य की तलवार है?

मुसाफिर की बातचीत से साफ़ जाहिर होता था कि वह कोई शरीफ़ आदमी है। उसकी आवाज़ में वह कशिश थी जो कानों को अपनी तरफ़ खींच लिया करती है। सब की आँखें उसकी तरफ़ उठ गयीं। पंडित चेतराम बोले-जी हाँ, कुछ अर्सा हुआ महाराज विक्रामदित्य का तेग़ा ज़मीन से निकला है।

मुसाफिर—यह क्योंकर मालूम हुआ कि यह तेंगा उन्हीं का है?

घेतराम—उसकी मूठ पर उनका नाम खुदा हुआ है।

मुसाफिर—उनकी तलवार तो बहुत बड़ी होगी?

चेतराम—नहीं, वह तो एक छोटा-सा नीमचा है।

मुसाफिर—तो फिर उसमें कोई खास गुण होगा।

चेतराम—जी हाँ; उसके गुण अनमोल हैं। देखकर अक्ल दंग रह जाती है। जहाँ रख दो, उसमें जलते चिराग़ की-सी रोशनी पैदा हो जाती है।