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विक्रमादित्य का तेगा
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रहा गया, वह निर्भय सिपाहियों के बीच में घुस आयी और ऊँची आवाज़ में बोली—कौन मेरा गाना सुनना चाहता है?

सिपाहियों ने उसे देखते ही प्रेमसिंह को छोड़ दिया और बोले—हम सब तेरा गाना सुनेंगे।

वृन्दा—अच्छा बैठ जाओ, मैं गाती हूँ।

इस पर कई सिपाहियों ने ज़िद की कि इसे पड़ाव पर ले चलो, वहाँ खूब रंग जमेगा।

जब वृन्दा सिपाहियों के साथ पड़ाव की तरफ चली तो प्रेमसिंह ने कहा—वृन्दा इनके साथ जाती हो तो फिर इस घर में पैर न रखना।

वृन्दा जब पड़ाव पर पहुँची तो वहाँ बदमस्तियों का एक तूफ़ान मचा हुआ था। विजय की देवी दुश्मन को वर्वाद करके अब विजेताओं की मानवता और सज्जनता को पाँव से कुचल रही थी। हैवानियत काखूखार शेर दुश्मन के खून से तृप्त न होकर अब मानवोचित भावों का खून चूस रहा था। वृन्दा को लोग एक सजे हुए खेमे में ले गये। यहाँ फ़र्शी चिराग़ रोशन थे और आग-जैसी शराब के दौर चल रहे थे। वृन्दा उस मेमने की तरह, जो खूखार दरिन्दों के पंजे में फंस जाता है, फर्श के एक कोने पर सहमी हुई बैठी थी। वासना का भूत जो इस वक्त दिलों में अपनी शैतानी फौज सजाये बैठा था कभी आँखों की कमान से सतीत्व का नाश करनेवाले तेज़ तीर चलाता और कभी मुंह की कमान से मर्मवेधी वाणों की बौछार करता। जहरीली शराब में बुझे हुए यह तीर वृन्दा के कोमल और पवित्र हृदय को छेदते हुए पार हो जाते थे। वह सोच रही श्री-ऐ द्रौपदी की लाज रखनेवाले कृष्ण भगवान, तुमने धर्म के बन्धन से बंधे हुए पाण्डवों के होते हुए द्रौपदी की लाज रखी थी, मैं तो दुनिया में बिल्कुल अनाथ हूँ, क्या मेरी लाज न रखोगे? यह सोचते हुए उसने मीरा का यह मशहूर भजन गाया—

सिया रघुबीर भरोसो ऐसो।

वृन्दा ने यह गीत बड़े मोहक ढंग से गाया। उसके मीठे सुरों में मीरा का अन्दाज पैदा हो गया था। प्रकट रूप से वह शराबी सिपाहियों के सामने बैठी गा रही थी मगर कल्पना की दुनिया में वह मुरलीवाले श्याम के सामने हाथ बाँधे खड़ी उससे प्रार्थना कर रही थी।

जरा देर के लिए उस शोर से भरे हुए महल में निस्तब्धता छा गयी। इन्सान के दिल में बैठे हुए हैवान पर भी प्रेम की यह तड़पा देनेवाली पुकार अपना जादू चला गयी।