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गुप्त धन
 


मीठा गाना मस्त हाथी को भी बस में कर लेता है। पूरे घंटे भर तक वृन्दा ने सिपा-हियों को मूर्तिवत् रक्खा। सहसा घड़ियाल ने पाँच वजाये। सिपाही और सरदार सब चौंक पड़े। सबका नशा हिरन हो गया। चालीस कोस की मंजिल तय करनी है, फुर्ती के साथ रवानगी की तैयारियां होने लगीं। खेमे उखड़ने लगे, सवारों ने घोड़ों को दाना खिलाना शुरू किया। एक भगदड़-सी मच गयी। उधर सूरज निकला इधर फौज ने कूच का डंका बजा दिया। शाम को जिस मैदान का एक-एक कोना आवाद था, सुबह को वहाँ कुछ भी न था। सिर्फ टूटे-फूटे उखड़े चूल्हों की राख और खेमों की कीलों के निशान उस शान-शौकत की यादगार के रूप में रह गये थे।

वृन्दा ने जब महफ़िल के लोगों को रवानगी की तैयारियों में व्यस्त देखा तो वह खेमे से बाहर निकल आयी। कोई बाधक न हुआ। मगर उसका दिल धड़क रहा था कि कहीं कोई आकर फिर न पकड़ ले। जब वह पेड़ों के झुरमुट से बाहर पहुँची तो उसकी जान में जान आयो'! बड़ा सुहाना मौसम था, ठंडी-ठंडी मस्त हवा पेड़ों के पत्तों पर वीमे-धीमे चल रही थी और पूरव के क्षितिज में सूर्य भगवान की अगवानी के लिए लाल मखमल का फ़र्श विछाया जा रहा था। बृन्दा ने आगे क़दम बढ़ाना चाहा। मगर उसके पाँव न उठे। प्रेमसिंह की यह बात कि सिपाहियों के साथ जाती हो तो फिर इस घर में पैर न रखना, उसे याद आ गयी। उसने एक लम्बी साँस ली और जमीन पर बैठ गयी। दुनिया में अब उसके लिए कोई ठिकाना न था।

उस अनाथ चिड़िया की हालत कैसी दर्दनाक है जो दिल में उड़ने की चाह लिये हुए बहेलिये को कैद से निकल आती है मगर आजाद होने पर उसे मालूम होता है कि उस निष्ठुर बहेलिये ने उसके परों को काट दिया है। वह पेड़ों की छायेदार डालियों की तरफ बार-बार हसरत की निगाहों से देखती है मगर उड़ नहीं सकती और एक बेबसी के आलम में सोचने लगती है कि काश बहेलिया मुझे फिर अपने पिंजरे में कैद कर लेता । वृन्दा की हालत इस वक़्त ऐसी ही दर्दनाक थी।

वृन्दा कुछ देर तक इस खयाल में डूबी बैठी रही, फिर वह उठी और धीरे-धीरे प्रेमसिंह के दरवाजे पर आयी। दरवाजा खुला हुआ था मगर वह अन्दर कदम न रख सकी। उसने दरोदीवार को हसरतभरी निगाहों से देखा और फिर जंगल की तरफ़ चली गयी।