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विक्रमादित्य का तेगा
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शहर लाहौर के एक शानदार हिस्से में ठीक सड़क के किनारे एक अच्छा-सा साफ़-सुथरा तिमंजिला मकान है। हरीभरी और सुन्दर फूलोंवाली माधवी लता ने उसकी दीवारों और मेहरावों को खूब सजा दिया है। इसी मकान में एक अमीराना ठाट-बाट से सजे हुए कमरे के अन्दर वृन्दा एक मखमली कालीन पर बैठी हुई अपनी सुन्दर रंगों और मीठी आवाज़वाली मैना को पड़ा रही है। कमरे की दीवारों पर हलके हरे रंग की कलई है—खुशनुमा दीवारगीरियां, खूबसूरत तसवीरें उचित स्थानों पर शोभा दे रही हैं। सन्दल और खस की प्राणवर्द्धक सुगन्ध कमरे में फैली हुई है। एक बूढ़ी औरत बैठी हुई पंखा झल रही है। मगर इस ऐश्वर्य और विलास' की सब सामग्रियों के होते हुए वृंदा का चेहरा उदास है। उसका चेहरा अब और भी पीला नज़र आता है । मौलश्री का फूल मुरझा गया है।

वृन्दा अब लाहौर की मशहूर गानेवालियों में से है। उसे इस शहर में आये तीन महीने से ज्यादा नहीं हुए, मगर इतने ही दिनों में उसने वहुत बड़ी शोहरत हासिल कर ली है। यहाँ उसका नाम श्यामा मशहूर है। इतने बड़े शहर में जिससे श्यामा बाई का पता पूछो वह यकीनन बता देगा। श्यामा की आवाज़ और अन्दाज़ में कोई मोहनी है, जिसने शहर में हर को अपना प्रेमी बना रक्खा है। लाहौर में बाकमाल गानेवालियों की कमी नहीं है । लाहौर उस जमाने में हर कला का केन्द्र था मगर कोयलें और बुलबुलें बहुत थीं, श्यामा सिर्फ एक थी। वहध्रुपद ज्यादा गाती थी इसलिए लोग उसे ध्रुपदी श्यामा कहते थे।

लाहौर में मियाँ तानसेन के खानदान के कई ऊँचे कलाकार हैं जो राग और रागनियों में बातें करते हैं। वह श्यामा का गाना पसन्द नहीं करते। वह कहते हैं कि श्यामा का गाना अक्सर ग़लत होता है। उसे राग और रागनियों का ज्ञान नहीं। मगर उनकी इस आलोचना का किसी पर कुछ असर नहीं होता । श्यामा गलत गाये या सही गाये वह जो कुछ गाती है उसे सुनकर लोग मस्त हो जाते हैं। उसका भेद यह है कि श्यामा हमेशा दिल से गाती है और जिन भावों को वह प्रकट करती उन्हें खुद भी अनुभव करती है। वह कठपुतलियों की तरह तुली हुई अदाओं की नक़ल नहीं करती। अब उसके बगैर महफ़िलें सूनी रहती हैं। हर महफ़िल में उसका मौजूद होना लाजिमी हो गया है। वह चाहे श्लोक ही गाये मगर उसके बगैर संगीतप्रेमियों का जो नहीं भरता। तलवार को बाढ़ की तरह वह महफिलों की जान है। उसने साधारणजनों के हृदय में यहाँ तक घर कर लिया है कि जब वह अपनी