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विक्रमादित्य का तेगा
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वृंदा ने आँसू पोंछते हुए जवाब दिया—मैं अन्दर न आऊँगी।

प्रेमसिंह—आओ-आओ, अपने बुढ़े बाप की बातों का बुरा न मानो।

वृन्दा—नहीं दादा, मैं अन्दर कदम नहीं रख सकती।

प्रेमसिंह—क्यों?

वृन्दा—फिर कभी बताऊँगी। मैं तुम्हारे पास वह तेग़ा लेने आयी हूँ।

प्रेमसिंह ने अचरज में आकर पूछा—उसे लेकर क्या करोगी?

वृन्दा—अपनी बेइज्जती का बदला लूंगी।

प्रेमसिंह—किससे?

वृन्दा—रनजीतसिंह से।

प्रेमसिंह जमीन पर बैठ गया और वृन्दा की बातों पर गौर करने लगा, फिर बोला—वृन्दा, तुम्हें मौका क्योंकर मिलेगा?

वृन्दा—कभी-कभी धूल के साथ उड़कर चींटी भी आसमान तक जा पहुँचती है।

प्रेमसिंह—मगर बकरी शेर से क्योंकर लड़ेगी?

वृन्दा—इसी तेगे की मदद से।

प्रेमसिंह—इस तेगे ने कभी छिपकर खून नहीं किया।

वृन्दा—दादा, यह विक्रमादित्य का तेगा है। इसने हमेशा दुखियारों की मदद की है।

प्रेमसिंह ने तेगा लाकर वृन्दा के हाथ में रख दिया। वृन्दा उसे पहलू में छिपा-कर जिस तरफ़ से आयी थी उसी तरफ़ चली गयी। सूरज डूब गया था। पश्चिम के क्षितिज में रोशनी का कुछ-कुछ निशान बाक़ी था और भैंसें अपने बछड़ों को देखने के लिए चरागाहों से दौड़ती और चाव-भरी हुई आवाज़ से मिमियाती चली आती थीं और वृन्दा अपने बच्चे को रोता छोड़कर शाम के अँधेरे डरावने जंगल की तरफ जा रही थी।

वृहस्पति का दिन है। रात के दस बज चुके हैं। महाराजा रनजीतसिंह अपने विलास-भवन में शोभायमान हो रहे हैं। एक सात बत्तियोंवाला झाड़ रौशन है । मानों दीपक-सुन्दरी अपनी सहेलियों के साथ शबनम का घूंघट मुंह पर डाले। अपने रूप के गर्व में खोयी हुई हैं। महाराजा साहब के सामने बृन्दा गेरुए रंग की साड़ी पहने बैठी है। उसके हाथ में एक बीन है, उसी पर वह एक लुभावना गीत अलाप रही है।