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गुप्त धन
 


वृंदा का चेहरा लाल हो गया। महाराजा रनजीतसिंह एक गंवार देहाती औरत का यह हौसला, यह खयाल और जोशीली बात सुनकर सकते में आ गये। काँच का टुकड़ा टूटकर तेज धारवाला छुरा हो जाता है। वही कैफियत इन्सान के टूटे हुए दिल की है।

आखिर महाराज ने ठंडी साँस ली और हसरतभरे लहजे में बोले—श्यामा, इंसाफ़ जिसका खून चाहता है, वह मैं हूँ।

इतना कहने के साथ महाराज रनजीतसिंह का चेहरा भभक उठा और दिल वेकाबू हो गया। तात्कालिक भावनाओं के नशे में आदमी का दिल आसमान की बुलन्दियों तक जा पहुँचता है। काँटे के चुभने से कराहनेवाला इन्सान इसी नशे से मस्त होकर खंजर की नोक कलेजे में चुभी लेता है। पानी की बौछार से डरनेवाला इन्सान गले-गले पानी में अकड़ता हुआ चला जाता है। इस हालत में इन्सान का दिल एक असाधारण शक्ति और असीम उत्साह अनुभव करने लगता है। इसी हालत में इन्सान छोटे से छोटे, जलील से जलील काम करता है और इसी हालत में इन्सान अपने वचन और कर्म की ऊँचाई से देवताओं को भी लज्जित कर देता है। महाराजा रनजीतसिंह उद्विग्न होकर उठ खड़े हुए और ऊँची आवाज़ में बोले—श्यामा, इंसाफ़ जिसका खून चाहता है, वह मैं हूँ! तुम्हारे साथ जो जुल्म हुआ है उसका जवाबदेह मैं हूँ। बुजुर्गों ने कहा है कि ईश्वर के सामने राजा अपने नौकरों की सस्ती और जबरदस्ती का ज़िम्मेदार होता है।

यह कहकर राजा ने तेजी के साथ अचकन के बन्द खोल दिये और वृन्दा के सामने घुटनों के बल, सीना फैलाकर बैठते हुए बोले—श्यामा, तुम्हारे पहलू में तलवार छिपी हुई है। वह विक्रमादित्य की तलवार है। उसने कितनी ही बार न्याय की रक्षा की है। आज एक अभागे राजा के खून से उसकी प्यास बुझा दी। बेशक वह राजा अभागा है जिसके राज्य में अनाथों पर अत्याचार होता है।

बृन्दा के दिल में अब एक जबरदस्त तब्दीली पैदा हुई, बदले की भावना ने प्रेम और आदर को जगह दो। रनजीतसिंह ने अपनी जिम्मेदारी मान ली, वह उसके सामने एक मुजरिम की हैसियत में इन्साफ़ की तलवार का निशाना बनने के लिए खड़े हैं, उनकी जान अब उसकी मुट्ठी में है। उन्हें मारना या जिलाना अब उसका अख्तियार है।

यह खयाल उसकी बदले की भावना को ठंडा कर देने के लिए काफी थे। प्रताप और ऐश्वर्य जब अपने स्वर्ण-सिंहासन से उतरकर दया की याचना करने लगता है