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आखिरी मंजिल
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मुझे उसकी आंखों में आत्मा के उल्लास का नशा दिखाई पड़ता । हँसी-दिल्लगी और रंगीनी मुमकिन है कुछ लोगों के दिलों पर असर पैदा कर सके मगर वह कौन-सा दिल है जो दर्द के भावों से पिघल न जायेगा।

एक रोज हम दोनों इसी बाग की सैर कर रहे थे। शाम का वक्त था और चैत का महीना । मोहिनी की तबियत आज खुश थी। बहुत दिनों के बाद आज उसके होठों पर मुस्कराहट की झलक दिखाई दी थी। जब शाम हो गई और पूरनमासी का चांद गंगा की गोद से निकलकर ऊपर उठा तो हम इसी हौज के किनारे बैठ गये। यह मौलसिरियों की कतार और यह हौज मोहिनी की यादगार हैं। चांदनी में बिसात आयी और चौपड़ होने लगी। आज तबियत की ताज़गी ने उसके रूप को चमका दिया था और उसकी मोहक चपलतायें मुझे मतवाला क्रिये देती थीं। मैं कई बाजियां खेला और हर बार हारा ! हारने में जो मजा था वह जीतने में कहां । हल्की-सी मस्ती में जो मज़ा है वह छकने और मतवाला होने में नहीं ।

चांदनी खूब छिटकी हुई थी। एकाएक मोहिनी ने गंगा की तरफ़ देखा और मुझसे बोली, वह उस पार कैसी रोशनी नजर आ रही है ? मैंने भी निगाह दौड़ाई, चिता की आग' जल रही थी लेकिन मैंने टालकर कहा-मांझी खाना पका रहे हैं।

मोहनी को विश्वास न हुआ। उसके चेहरे पर एक उदास मुस्कराहट दिखाई दी और आंखें नम हो गईं। ऐसे दुख देनेवाले दृश्य उसके भावुक और दर्दमंद दिलपर वहीं असर करते थे जो लू की लपट फूलों के साथ करती हैं।

थोड़ी देर तक वह मौन, निश्चल बैठी रही फिर शोकभरे स्वर में बोली--

‘अपनी आखिरी मंजिल पर पहुंच गया !'

--जमाना, अगस्त-सितम्बर १९११