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आल्हा
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से कहना पड़ता है। आल्हा अपनी दौलत के नशे में चूर हो रहा है। उसके दिल में यह झूठा स्त्रयाल पैदा हो गया है कि मेरे ही बाहु-बल से यह राज्य कायम है।

राजा परमाल की आँखें लाल हो गयीं, बोला--आल्हा को मैंने हमेशा अपना लड़का समझा है।

माहिल-लड़के से ज्यादा।

परमाल-वह अनाथ था, कोई उसका संरक्षक न था। मैंने उसका पालन-पोषण किया, उसे गोद में खिलाया। मैंने उसे जागीरें दी, उसे अपनी फ़ौज का सिपह- सालार बनाया। उसकी शादी में मैंने बीस हजार चन्देल सूरमाओं का खून बहा दिया। उसकी माँ और मेरी मलिनहा वर्षों गले मिलकर सोयी हैं और आल्हा क्या मेरे एहसानों को भूल सकता है ? माहिल, मुझे तुम्हारी बात पर विश्वास नहीं आता। माहिल का चेहरा पीला पड़ गया। मगर सम्हलकर बोला--महाराज, मेरी जबान से कभी झुठ बात नहीं निकली।

परमाल-मुझे कैसे विश्वास हो?

माहिल ने धीरे से राजा के कान में कुछ कह दिया।

आल्हा और ऊदल दोनों चौगान के खेल का अभ्यास कर रहे थे। लम्बे-चौड़े मैदान में हजारों आदमी इस तमाशे को देख रहे थे। गेंद किसी अभागे की तरह इधर-उधर ठोकरें खाता फिरता था। चोबदार ने आकर कहा--महाराज ने याद फरमाया है।

आल्हा को सन्देह हुआ। महाराज ने आज बेवक्त क्यों याद किया? खेल बन्द हो गया। गेंद को ठोकरों से छुट्टी मिली। फौरन दरबार में चोबदार के साथ हाजिर हुआ और झुककर आदाब बजा लाया।

परमाल ने कहा-~-मैं तुमसे कुछ माँगू ? दोगे?

आल्हा ने सादगी से जवाब दिया-फरमाइए।

परमाल-इनकार तो न करोगे?

आल्हा ने कनखियों से माहिल की तरफ देखा और समझ गया कि इस वक्त कुछ न कुछ दाल में काला है। इसके चेहरे पर यह मुस्कराहट क्यों? गूलर में यह फूल क्यों लगे? क्या मेरी वफ़ादारी का इम्तहान लिया जा रहा है ? जोश से बोला--महाराज, मैं आपकी ज़बान से ऐसे सवाल सुनने का आदी नहीं हूँ।