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गुप्त धन
 

आप मेरे संरक्षक, मेरे पालनहार, मेरे राजा हैं। आपकी भवों के इशारे पर मैं आग में कूद सकता हूँ और मौत से लड़ सकता हूँ। आपकी आज्ञा पाकर मैं असम्भव को सम्भव बना सकता हूँ। आप मुझसे ऐसे सवाल न करें।

परमाल—शाबाश, मुझे तुमसे ऐसी ही उम्मीद है।

आल्हा-मुझे क्या हुक्म मिलता है ?

परमाल—तुम्हारे पास नाहर घोड़ा है ?

आल्हा ने 'जी हाँ' कहकर माहिल को तरफ़ भयानक गुस्से भरी हुई आँखों से देखा।

परमाल—अगर तुम्हें बुरा न लगे तो उसे मेरी सवारी के लिए दे दो।

आल्हा कुछ जवाब न दे सका, सोचने लगा, मैंने अभी वादा किया है कि इनकार न करूंगा। मैंने बात हारी है। मुझे इनकार न करना चाहिए। निश्चय ही इस वक्त मेरी स्वामिभक्ति की परीक्षा ली जा रही है। मेरा इनकार इस समय बहुत बेमौक़ा और खतरनाक है। इसका तो कुछ सम नहीं। मगर मैं इनकार किस मुंह से करूँ, वेवफ़ा न कहलाऊँगा। मेरा और राजा का सम्बन्ध केवल स्वामी और सेवक का नहीं है, मैं उनकी गोद में खेला हूँ। जब मेरे हाथ कमजोर थे, और पाँव में खड़े होने का बूता न था, तब उन्होंने मेरे जुल्म सहे हैं, क्या मैं इनकार कर सकता हूँ?

विचारों की धारा मुड़ी-~-माना कि राजा के एहसान मुझ पर अनगिनती हैं। मेरे शरीर का एक-एक रोआँ उनके एहसानों के बोझ से दबा हुआ है मगर क्षत्रिय कभी अपनी सवारी का घोड़ा दूसरे को नहीं देता। यह क्षत्रियों का धर्म नहीं। मैं राजा का पाला हुआ और एहसानमन्द हूँ। मुझे अपने शरीर पर अधिकार है। उसे मैं राजा पर न्योछावर कर सकता हूँ। मगर राजपूती धर्म पर मेरा कोई अधिकार नहीं है, उसे मैं नहीं तोड़ सकता। जिन लोगों ने धर्म के कच्चे धागे को लोहे की दीवार समझा है, उन्हीं से राजपूतों का नाम चमक रहा है। क्या मैं हमेशा के लिए अपने ऊपर दाग़ लगाऊँ ? आह! माहिल ने इस वक्त मुझे खूब जकड़ रखा है। सामने खूखार शेर है, पीछे गहरी खाई। या तो अपमान उठाऊँ या कृतघ्न कहलाऊँ। या तो राजपूतों के नाम को डुबोऊँ या बर्बाद हो जाऊँ। खैर, जो ईश्वर की मर्जी, मुझे कृतघ्न कहलाना स्वीकार है, मगर अपमानित होना स्वीकार नहीं । बर्बाद हो जाना मंजर है, मगर राजपूतों के धर्म में बट्टा लगाना मंजूर नहीं।