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आल्हा
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अपनी मातृभूमि से बिछुड़े हुए इन दोनों भाइयों से मिले। आँखों ने खुशी के आँसू . बहाये। राजा परमाल उनके आने की खबर पाते ही कीरत सागर तक पैदल आया। आल्हा और ऊदल दौड़कर उसके पाँव से लिपट गये। तीनों की आँखों से पानी बरसा और सारा मनमुटाव धुल गया!

दुश्मन सर पर खड़ा था, ज्यादा आतिथ्य-सत्कार का मौका न था। वहीं कीरत सागर के किनारे देश के नेताओं और दरबार के कर्मचारियों की राय से आल्हा फ़ौज का सेनापति बनाया गया। वहीं मरने-मारने के लिए सौगधे खायी गयीं। वहीं बहादुरों ने कसमें खायी कि मैदान से हटेंगे तो मरकर हटेंगे। वहीं लोग एक दूसरे के गले मिले और अपनी किस्मतों का फ़ैसला करने चले। आज किसी की आँखों में और चेहरे पर उदासी के चिह्न न थे, औरतें हँस-हँसकर अपने प्यारों को विदा करती थीं, मर्द हँस-हँसकर स्त्रियों से अलग होते थे क्योंकि यह आखिरी बाज़ी है, इसे जीतना जिन्दगी और हारना मौत है।

उस जगह के पास जहाँ अब और कोई क़स्बा आबाद है, दोनों फ़ौजों का मुकाबला हुआ और अठारह दिन तक मारकाट का बाजार गर्म रहा। खूब घमासान लड़ाई हुई। पृथ्वीराज खुद लड़ाई में शरीक था। दोनों दल दिल खोलकर लड़े। वीरों ने खूब अरमान निकाले और दोनों तरफ़ की फ़ौजें वहीं कट मरीं। तीन लाख आदमियों में सिर्फ तीन आदमी ज़िन्दा बचे-एक पृथ्वीराज, दूसरा चन्दा भाट, तीसरा आल्हा। ऐसी भयानक, अटल और निर्णायक लड़ाई शायद ही किसी देश और किसी युग में हुई हो। दोनों ही हारे और दोनों ही जीते। चन्देल और चौहान हमेशा के लिए खाक में मिल गये क्योंकि थानेसर की लड़ाई का फैसला भी इसी मैदान में हो गया। चौहानों में जितने अनुभवी सिपाही थे, वह सब औरई में काम आये। शहाबुद्दीन से मुकाबिला पड़ा तो नौसिखिये, अनुभवहीन सिपाही मैदान में लाये गये और नतीजा वही हुआ जो हो सकता था। आल्हा का कुछ पता न चला कि कहाँ गया। कहीं शर्म से डूब मरा या साधू हो गया।

जनता में अब तक यही विश्वास है कि वह ज़िन्दा है। लोग कहते हैं कि वह अमर हो गया। यह बिलकुल ठीक है क्योंकि आल्हा संचमुच अमर है और वह कभी मिट नहीं सकता, उसका नाम हमेशा कायम रहेगा।

--जमाना, जनवरी १९१२