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नसीहतों का दफ्तर
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कोई नहीं होता। हर व्यक्ति को उससे नफ़रत होती है। वह ग़रीब किसी को नुक- सान नहीं पहुँचाता, आम तौर पर वह बहुत ही शान्तिप्रिय, गम्भीर, सबसे मिलजुल कर रहनेवाला और स्वाभिमानी व्यक्ति होता है, मगर कंजूसी काला रंग है जिस पर दूसरा कोई रंग, चाहे कितनाही चटख क्यों न हो, नहीं चढ़ सकता। बांबू अक्षयकुमार भी कंजूस मशहूर थे, हालाँकि जैसा कायदा है, यह उपाधि उन्हें ईर्ष्या के दरबार से प्राप्त हुई थी। जो व्यक्ति कंजूस कहा जाता हो, समझ लो कि वह बहुत भाग्यशाली है और उससे डाह करनेवाले बहुत हैं। अगर बाबू अक्षयकुमार कौड़ियों को दाँत से पकड़ते थे तो किसी का क्या नुकसान था। अगर उनका मकान बहुत ठाट-बाट से नहीं सजा हुआ था, अगर उनके यहाँ मुफ्तखोर ऊँघनेवाले नौकरों की फ़ौज नहीं थी, अगर वह दो घोड़ों की फ़िटन पर कचहरी नहीं जाते थे तो किसी का क्या नुक़- सान था। उनकी ज़िन्दगी का उसूल था कि कौड़ियों की तुम फ़िक्र रक्खो, रुपये अपनी फ़िक्र आप कर लेंगे। और इस सुनहरे उसूल का कठोरता से पालन करने का उन्हें पूरा अधिकार था। इन्हीं कौड़ियों पर जवानी की बहारें और दिल की उमंगें न्यौछावर की थीं। आँखों की रोशनी और सेहत जैसी बड़ी नेमत इन्हीं कौड़ियों पर चढ़ायी थी। उन्हें दाँतों से पकड़ते थे तो बहुत अच्छा करते थे, पलकों से उठाना चाहिए था।

लेकिन सुन्दर हँसमुख हेमवती का स्वभाव इसके बिलकुल उलटा था। अपनी दूसरी बहनों की तरह वह भी सुख-सुविधा पर जान देती थी और गो बाबू अक्षय- कुमार ऐसे नादान और ऐसे रूखे-सूखे नहीं थे कि उसकी कद्र करने के काबिल कमजोरियों की कद्र न करते (नहीं, वह सिंगार और सजावट की चीज़ों को देखकर कभी-कभी खुश होने की कोशिश भी करते थे) मगर कभी-कभी जब हेमवती उनकी नेक सलाहों की परवाह न करके सीमा से आगे बढ़ जाती थी तो उस दिन बाबू साहब को उसकी खातिर अपनी वकालत की योग्यता का कुछ-न-कुछ हिस्सा जरूर खर्च करना पड़ता था।

एक रोज़ जब अक्षयकुमार कचहरी से आये तो सुन्दर और हँसमुख हेमवती ने एक रंगीन लिफाफा उनके हाथ में रख दिया। उन्होंने देखा तो अन्दर एक बहुत नफीस गुलाबी रंग का निमन्त्रण था। हेमवती से बोले---इन लोगों को एक-न-एक खब्त सूझता ही रहता है। मेरे खयाल में इस ड्रामैटिक परफारमेंस' की कोई जरूरत न थी। हेमवती इन बातों के सुनने की आदी थी, मुस्कराकर बोली-क्यों इससे बेहतर और कौन खुशी का मौका हो सकता है ?