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नसीहतों का दफ्तर
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है, अगर तुम्हें मालूम होता कि मैं इसे पसन्द न करूंगा तो तुम हरगिज स्वीकार न करतीं।

सुन्दर और हँसमुख हेमवती इस मुहब्बत में लिपटी हुई तकरीर को बजाहिर बहुत गौर से सुनती रही। इसके बाद जान-बूझकर अनजान बनते हुए बोली-~मैंने तो यह सोचकर मंजूर कर लिया था कि कपड़े सब पहले ही के रक्खे हुए हैं, ज्यादा सामान की ज़रूरत न होगी, सिर्फ चन्द घंटों की तकलीफ़ है और एहसान मुफ्त । डाक्टरों को नाराज़ करना भी तो अच्छी बात नहीं है। मगर अब न जाऊंगी। मैं अभी उनको अपनी मजबूरी लिखे देती हूँ। सचमुच क्या फ़ायदा, वेकार की उलझन !

यह सुनकर कि कपड़े सब पहले के रक्खे हुए हैं, कुछ ज्यादा खर्च न होगा, अक्षयकुमार के दिल पर से एक बड़ा बोझ उठ गया। डाक्टरों को नाराज करना भी तो अच्छी बात नहीं। यह जुमला भी मानों से खाली न था। बाबू साहब पछताये कि अगर पहले से यह हाल मालूम होता तो काहे को इस तरह रूखा-सूखा उपदेशक बनना पड़ता। गर्दन हिलाकर बोले- नहीं नहीं मेरी जान, मेरा मंशा यह हरगिज नहीं कि तुम जाओ ही मत। जब तुम निमन्त्रण स्वीकार कर चुकी हो तो अब उससे मुकरना इन्सानियत से हटी हुई बात मालूम होती है। मेरा सिर्फ यह मंशा था कि जहां तक मुमकिन हो, ऐसे जलसों से दूर रहना चाहिए।

मगर हेमवती ने अपना फैसला बहाल रक्खा--अब मैं न जाऊंगी। तुम्हारी वाहें गिरह में बांध ली ।

टूसरे दिन शाम को अक्षयकुमार हवाखोरी को निकले। आनन्दवाग उस वक्त जोबन पर था। ऊँचे-ऊँचे सरो और अशोक की कतारों के बीच में लाल बजरी में सजी हुई सड़क ऐसी खूबसूरत मालूम होतीथी कि जैसे कमल के पत्तों में फूल खिला हुआ है या नोकदार पलकों के बीच में लाल मतवाली आंखें जेव दे रही हैं। बाबू अक्षयकुमार इस क्यारी पर हवा के हल्के हल्के ताज़गी देनेवाले झोंकों का मजा उठाते हुए एक सायेदार कुंज में जा बैठे। यह उनकी खास जगह थी। इस इनायतों की बस्ती में आकर थोड़ी देर के लिए उनके दिल पर फूलों के खिलेपन और पत्तों की हरियाली का बहुत ही नशीला असर होता था। थोड़ी देर के लिए उनका दिल भी खिल जाता था। यहां बैठे उन्हें थोड़ी ही देर हुई थी, कि उन्हें एक बूढ़ा आदमी अपनी तरफ़ आता हुआ दिखायी दिया। उसने सामने आकर सलाम की तरह