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100: प्रेमचंद रचनावली-6
 


गईं। गोबर इस करुण दृश्य से भागकर कहीं चला गया वह गाय को जाते कैसे देख सकेगा? अपने आंसुओं को कैसे रोक सकेगा? होरी भी ऊपर ही से कठोर बना हुआ था। मन उसका भी चंचल था। ऐसा कोई माई का लाल नहीं, जो इस वक्त उसे पच्चीस रुपये उधार दे-दे, चाहे फिर पचास रुपये ही ले-ले। वह गाय के सामने जाकर खड़ा हुआ, तो उसे ऐसा जान पड़ा कि उसकी काली-काली आंखों में आंसू भरे हुए हैं और वह कह रही है-क्या चार दिन में ही तुम्हारा मन मुझसे भर गया? तुमने तो वचन दिया था कि जीते-जी इसे न बेचूंगा। यही वचन था तुम्हारा। मैंने तो तुमसे कभी किसी बात का गिला नहीं किया। जो कुछ रूखा-सूखा तुमने दिया, वही खाकर संतुष्ट हो गई। बोलो।

धनिया ने कहा-लड़कियां तो सो गईं। अब इसे ले क्यों नहीं जाते? जब बेचना ही है, तो अभी बेच दो।

होरी कांपते हुए स्वर में कहा-मेरा तो हाथ नहीं उठता धनिया। उसका मुंह नहीं देखती ? रहने दो, रुपये सूद पर ले लूंगा। भगवान् ने चाहा तो सब अदा हो जायेंगे, तीन-चार सौ होते ही क्या हैं। एक बार ऊख लग जाय।

धनिया ने गर्व-भरे प्रेम से उसकी ओर देखा-और क्या। इतनी तपस्या के बाद तो घर में गऊ आई। उसे भी बेच दो। ले लो कल रुपये। जैसे और सब चुकाए जायंगे, वैसे इसे भी चुका देंगे।

भीतर बड़ी उमस हो रही थी। हवा बंद थी। एक पत्ती न हिलती थी। बादल छाए हुए थे, पर वर्षा के लक्षण न थे होरी ने गाय को बाहर बांध दिया। धनिया ने टोका भी, कहां लिए जाते हो? पर होरी ने सुना नहीं, बोला-बाहर हवा में बांधे देता हूं। आराम से रहेगी, उसके भी तो जान हैं। गाय बांधकर वह अपने मंझले भाई सोभा को देखने गया। सोभा को इधर कई महीने से दमे का आरज हो गया था। दवा-दारू की जुगत नहीं। खाने-पीने का प्रबंध नहीं, और काम करना पड़ता था जी तोड़कर, इसलिए उसकी दशा दिन-दिन बिगड़ती जाती थी। सोमा सहनशील आदमी था, लड़ाई-झगड़ों से कोसों दूर भागने वाला। किसी से मतलब नहीं। अपने काम से काम। होरी उसे चाहता था और वह भी होरी का अदब करता था। दोनों में रुपये-पैसे की बातें होने लगीं। रायसाहब का यह नया फर्मान आलोचनाओं का केंद्र बना हुआ था।

कोई ग्यारह बजते-बजते होरी लौटा और भीतर जा रहा था कि उसे भास हुआ, जैसे गाय के पास कोई आदमी खड़ा है। पूछा-कौन खड़ा है वहां?

हीरा बोला-मैं हूं दादा, तुम्हारे कौड़े में आग लेने आया था।

हीरा उसके कौड़े में आग लेने आया है, इस जरा-सी बात में होरी को भाई की आत्मीयता का परिचय मिला। गांव में और भी तो कौड़े हैं। कहीं भी आग मिल सकती थी। हीरा उसके कौड़े में आग ले रहा है, तो अपना ही समझकर तो। सारा गांव इस कौड़े में आग लेने आता था। गांव में सबसे सम्पन्न यही कौड़ था, मगर हीरा का आना दूसरी बात थी। और उस दिन की लड़ाई के बाद। हीरा के मन में कपट नहीं रहता। गुस्सैल है, लेकिन दिल साफ।

उसने स्नेह-भरे स्वर में पूछा तमाखू है कि ला दूं?

'नहीं, तमाखू तो है दादा।'

'सोमा तो आज बहुत बेहाल है।'