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102 : प्रेमचंद रचनावली-6
 

तीनों बाहर गए। चिराग लेकर देखा। सुन्दरिया के मुंह से फिचकुर निकल रहा था। आंखें पथरा गई थीं, पेट फूल गया था और चारों पांव फैल गए थे। धनिया सिर पीटने लगी। होरी पंडित दातादीन के पास दौड़ा। गांव में पशु-चिकित्सा के वही आचार्य थे। पंडितजी सोने जा रहे थे। दौड़े हुए आए। दम-के-दम में सारा गांव जमा हो गया। गाय को किसी ने कुछ खिला दिया। लक्षण स्पष्ट थे। साफ विष दिया गया है, लेकिन गांव में कौन ऐसा मुद्दई है, जिसने विष दिया हो, ऐसी वारदात तो इस गांव में कभी हुई नहीं, लेकिन बाहर का कौन आदमी गांव में आया। होरी की किसी से दुश्मनी भी न थी कि उस पर संदेह किया जाय। हीरा से कुछ कहा-सुनी हुई थी, मगर वह भाई-भाई का झगड़ा था। सबसे ज्यादा दु:खी तो हीरा ही था। धमकियां दे रहा था कि जिसने यह हत्यारों का काम किया है, उसे पाए तो खून पी जाय। वह लाख गुस्सैल हो, पर नीच काम नहीं कर सकता।

आधी रात तक जमघट रहा। सभी होरी के दु:ख में दुखी थे और बधिक को गालियां देते थे। वह इस समय पकड़ा जा सकता, तो उसके प्राणों की कुशल न थी। जब यह हाल है। तो कोई जानवरों को बाहर कैसे बांधेगा? अभी तक रात-बिरात सभी जानवर बाहर पड़े रहते थे। किसी तरह की चिंता न थी, लेकिन अब तो एक नई विपत्ति आ खड़ी हुई थी। क्या गाय थी कि बस देखता रहे। पूजने जोग। पांच सेर से कम दूध न था। सौ-सौ का एक-एक बाछा होता। आते देर न हुई और यह वज्र गिर पड़ा।

जब सब लोग अपने-अपने घर चले गए, तो धनिया होरी को कोसने लगी तुम्हें कोई लाख समझाए, करोगे अपनी मन की। तुम गाय खोलकर आंगन से चले, तब तक मैं जूझती रही कि बाहर न ले जाओ। हमारे दिन पतले हैं, न जाने कब क्या हो जाय, लेकिन नहीं, उसे गर्मी लग रही है। अब तो खूब ठंडी हो गई और तुम्हारा कलेजा भी ठंडा हो गया । ठाकुर मांगते थे, दे दिया होता, तो एक बोझ सिर से उतर जाता और निहोरे का निहोरा होता, मगर यह तमाचा कैसे पड़ता? कोई बुरी बात होने वाली होती है, तो मति पहले ही हर जाती है। इतने दिन मजे से घर में बंधती रही, न गर्मी लगी, न जूड़ी आई। इतनी जल्दी सबको पहचान गई थी कि मालूम ही न होता था कि बाहर से आई है। बच्चे उसके सींगों से खेलते रहते थे। सिर तक न हिलाती थी। जो कुछ नांद में डाल दो, चाट-पोंछकर साफ कर देती थी। लच्छमी थी, अभागों के घर क्या रहती? सोना और रूपा भी यह हलचल सुनकर जाग गई थीं और बिलख-बिलखकर रो रही थीं। उसकी सेवा का भार अधिकतर उन्हीं दोनों पर था। उनकी संगिनी हो गई थी। दोनों खाकर उठतीं, तो एक-एक टुकड़ा रोटी उसे अपने हाथों से खिलातीं कैसा जीभ निकालकर खा लेती थी, और जब तक उनके हाथ का कौर न पा लेती, खड़ी ताकती रहती। भाग्य फूट फूट गए।

गोबर और दोनों लड़कियां रो-धोकर सो गई थीं। होरी भी लेटा। धनिया उसके सिरहाने पानी का लोटा रखने आई, तो होरी ने धीरे से कहा-तेरे पेट में बात पचती नहीं, कुछ सुन पाएगी, तो गांव भर में ढिंढोरा पीटती फिरेगी।

धनिया ने आपत्ति की-भला सुनूं, मैंने कौन-सी बात पीट दी कि यों ही नाम बदनाम कर दिया।

'अच्छा, तेरा संदेह किसी पर होता है?'

'मेरा संदेह तो किसी पर नहीं है। कोई बाहरी आदमी था।'