विजय पा गई। पति जब मर रहा है, तो उससे कैसा बैर? ऐसी दशा में तो बैरियों से भी बैर नहीं रहता, वह तो अपना पति है। लाख बुरा हो, मगर उसी के साथ जीवन के पच्चीस साल कटे हैं, सुख किया है तो उसी के साथ, दु:ख भोगा है तो उसी के साथ। अब तो चाहे वह अच्छा है।
या बुरा, अपना है। दाढ़ीजार ने मुझे सबके सामने मारा, सारे गांव के सामने मेरा पानी उतार
लिया, लेकिन तब से कितना लज्जित है कि सीधे ताकता नहीं। खाने आता है तो सिर झुकाए
खाकर उठ जाता है, डरता रहता है कि मैं कुछ कह न बैठूं।
होरी जब अच्छा हुआ, तो पति-पत्नी में मेल हो गया था।
एक दिन धनिया ने कहा-तुम्हें इतना गुस्सा कैसे आ गया? मुझे तो तुम्हारे ऊपर कितना
ही गुस्सा आए, मगर हाथ न उठाऊंगी।
होरी लजाता हुआ बोला-अब उसकी चर्चा न कर धनिया। मेरे ऊपर कोई भूत सवार
था। इसका मुझे कितना दुख हुआ है, वह मैं ही जानता हूं।
'और जो मैं भी क्रोध में डूब मरी होती।'
'तो क्या मैं रोने के लिए बैठा रहता? मेरी लहास भी तेरे साथ चिता पर जाती।'
'अच्छा चुप रहो, बेबात की बात मत करो।'
'गाय गई सो गई, मेरे सिर पर एक विपत्ति डाल गई। पुनिया की फिकर मुझे मारे डालती है।'
'इसीलिए तो कहते हैं, भगवान् घर का बड़ा न बनाए। छोटों को कोई नहीं हंसता। नेकी-बदी सब बड़ों के सिर जाती है।'
माघ के दिन थे। महावट लगी हुई थी। घटाटोप अंधेरा छाया हुआ था। एक तो जाड़ों
की रात, दूसरे माघ की वर्षा। मौत का सा-सन्नाटा छाया हुआ था। अंधेरा तक न सूझता
था। होरी भोजन करके पुनिया के मटर के खेत की मेंड़ पर अपनी मडै़या में लेटा हुआ था। चाहता
था, शीत को भूल जाय और सो रहे, लेकिन तार-तार कंबल और फटी हुई मिर्जई और शीत
के झोंकों से गीली पुआल। इतने शत्रुओं के सम्मुख आने का नींद में साहस न था। आज
तमाखू भी न मिला कि उसी से मन बहलाता। उपला सुलगा लाया था, पर शीत में वह
भी बुझ गया। बेवाय फटे पैरों को पेट में डालकर और हाथों को जांघों के बीच में दबाकर
और कंबल में मुंह छिपाकर अपनी ही गर्म सांसों से अपने को गर्म करने की चेष्टा कर
रहा था। पांच साल हुए, यह मिर्जई बनवाई थी। धनिया ने एक प्रकार से जबरदस्ती बनवा
दी थी, वही जब एक बार काबुली से कपड़े लिए थे, जिसके पीछे कितनी सांसत हुई,
कितनी गालियां खानी पड़ीं। और यह कंबल उसके जन्म से भी पहले का है। बचपन
में अपने बाप के साथ वह इसी में सोता था, जवानी में गोबर को लेकर इसी कंबल में
उसके जाड़े कटे थे और बुढ़ापे में आज वही बूढ़ा कंबल उसका साथी है, पर अब वह
भोजन को चबाने वाला दांत नहीं, दुखने वाला दांत है। जीवन में ऐसा तो कोई दिन ही
नहीं आया कि लगान और महाजन को देकर कभी कुछ बचा हो। और बैठे-बैठाए यह एक
नया जंजाल पड़ गया। न करो तो दुनिया हंसे, करो तो यह संशय बना रहे कि लोग क्या कहते
हैं। सब यह समझते हैं कि वह पुनिया को लूट लेता है, उसकी सारी उपज घर में भर लेता है।
एहसान तो क्या होगा, उलटा कलंक लग रहा है। और उधर भोला कई बेर याद दिला चुके हैं
कि कहीं कोई सगाई का डौल करो, अब काम नहीं चलता। सोभा उससे कई बार कह चुका
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112 : प्रेमचंद रचनावली-6