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114 : प्रेमचंद रचनावली-6
 

धनिया ने कोई उत्तर न दिया। मंडै़या में आकर पुआल पर बैठती हुई बोली-गोबर ने तो मुंह में कालिख लगा दी, उसकी करनी क्या पूछते हो। जिस बात को डरती थी, वह होकर रही।

'क्या हुआ? किसी से मार-पीट कर बैठा?'

'अब मैं क्या जानूं, क्या कर बैठा, चलकर पूछो उसी रांड से?'

'किस रांड से? क्या कहती है ? बौरा तो नहीं गई?

‘हां, बौरा क्यों न जाऊंगी। बात ही ऐसी हुई है कि छाती दुगनी हो जाय।'

होरी के मन में प्रकाश की एक लंबी रेखा ने प्रवेश किया।

'साफ-साफ क्यों नहीं कहती। किस रांड को कह रही है?'

'उसी झुनिया को, और किसको ।'

'तो झुनिया क्या यहां आई है?'

'और कहां जाती, पूछता कौन?'

'गोबर क्या घर में नहीं है?'

'गोबर का कहीं पता नहीं जाने कहां भाग गया। इसे पांच महीने का पेट है।'

होरी सब कुछ समझ गया। गोबर को बार-बार अहिराने जाते देखकर वह खटका था जरूर, मगर उसे ऐसा खिलाड़ी न समझता था। युवकों में कुछ रसिकता होती ही है, इसमें कोई नई बात नहीं। मगर जिस रुई के गाले को उसने नीले आकाश में हवा के झोंके से उड़ते देखकर केवल मुस्करा दिया था, वह सारे आकाश में छाकर उसके मार्ग को इतना अंधकारमय बना देगा, यह तो कोई देवता भी न जान सकता था? गोबर ऐसा लंपट। वह सरल गंवार, जिसे वह अभी बच्चा समझता था , लेकिन उसे भोज की चिंता न थी, पंचायत का भय न था, झुनिया घर कैसे रहेगी, इसकी चिंता भी उसे न थी उसे चिंता थी गोबर की। लड़का लज्जाशील है, अनाड़ी है, आत्माभिमानी है, कहीं कोई नादानी न कर बैठे।

घबड़ाकर बोला-झुनिया ने कुछ कहा नहीं, गोबर कहां गया? उससे कहकर ही गया होगा?

धनिया झुंझलाकर बोली-तुम्हारी अक्कल तो घास खा गई है। उसकी चहेती तो यहां बैठी है, भागकर जायगा कहां? यहीं कहीं छिपा बैठा होगा। दूध थोड़ेही पीता है कि खो जायगा। मुझे तो इस कलमुंही झुनिया की चिंता है कि इसे क्या करूं? अपने घर में मैं तो छन-भर भी न रहने दूंगी। जिस दिन गाय लाने गया है, उसी दिन दोनों में ताक-झांक होने लगी। पेट न रहता तो अभी बात न खुलती। मगर जब पेट रह गया, तो झुनिया लगी घबड़ाने। कहने लगी, कहीं भाग चलो। गोबर टालता रहा। एक औरत को साथ ले के कहां जाय, कुछ न सूझा। आखिर जब आज वह सिर हो गई कि मुझे यहां से ले चलो, नहीं मैं परान दे दूंगी, तो बोला-तू चलकर मेरे घर में रह, कोई कुछ न बोलेगा, मैं अम्मां को मना लूंगा। यह गधी उसके साथ चल पड़ी। कुछ दूर तो आगे-आगे आता रहा, फिर न जाने किधर सरक गया। यह खड़ी-खड़ी उसे पुकारती रही। जब रात भीग गई और वह न लौटा, भागी यहां चली आई। मैंने तो कह दिया, जैसा किया है, उसका फल भोग। चुडैल ने लेके मेरे लड़के को चौपट कर दिया। तब से बैठी रो रही है। उठती ही नहीं। कहती है, अपने घर कौन मुंह लेकर जाऊं। भगवान् ऐसी संतान से तो बांझ ही रखें तो अच्छा। सबेरा होते-होते सारे गांव में कांव-कांव मच जायगी। ऐसा जी होता है, माहुर खा लूं। मैं तुमसे कह देती हूं, मैं अपने घर में न रखूंगी। गोबर को रखना हो, अपने सिर