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124 : प्रेमचंद रचनावली-6
 


गया! उसे तो कोई न छीन लेगा। गोबर घर लौट आए, धनिया अलग झोंपड़ी में सुखी रहेगी।

होरी ने पूछा-बच्चा किसको पड़ा है?

धनिया ने प्रसन्न मुख होकर जवाब दिया बिल्कुल गोबर को पड़ा है। सच!

'रिस्ट-पुस्ट तो है?'

'हां, अच्छा है।'


बारह

रात को गोबर झुनिया के साथ चला, तो ऐसा कांप रहा था, जैसे उसकी नाक कटी हुई हो। झुनिया को देखते ही सारे गांव में कुहराम मच जायगा, लोग चारों ओर से कैसी हाय-हाय मचायंगे, धनिया कितनी गालियां देगी, यह सोच-सोचकर उसके पांव पीछे रह जाते थे। होरी का तो उसे भय न था। वह केवल एक बार दहाड़ेंगे, फिर शांत हो जायंगे। डर था धनिया का, जहर खाने लगेगी, घर में आग लगाने लगेगी। नहीं, इस वक्त वह झुनिया के साथ घर नहीं जा सकता।

लेकिन कहीं धनिया ने झुनिया को घर में घुसने ही न दिया और झाड़ू लेकर मारने दौड़ी, तो वह बेचारी कहां जायगी? अपने घर तो लौट नहीं सकती। कहीं कुएं में कूद पड़े या गले में फांसी लगा ले, तो क्या हो? उसने लंबी सांस ली। किसकी शरण ले?

मगर अम्मां इतनी निर्दयी नहीं हैं कि मारने दौड़ें। क्रोध में दो-चार गालियां देंगी। लेकिन जब झुनिया उनके पांव पकड़कर रोने लगेगी, तो उन्हें जरूर दया आ जायगी। तब तक वह खुद कहीं छिपा रहेगा। जब उपद्रव शांत हो जायगा, तब वह एक दिन धीरे से आयगा और अम्मा को मना लेगा। अगर इस बीच उसे कहीं मजूरी मिल जाय और दो-चार रुपये लेकर घर लौटे, तो फिर धनिया का मुंह बंद हो जायगा।

झुनिया बोली-मेरी छाती धक्-धक कर रही है। मैं क्या जानती थी, तुम मेरे गले यह रोग मढ़ दोगे। न जाने किस बुरी साइत में तुमको देखा। न तुम गाय लेने आते, न यह सब कुछ होता। तुम आगे-आगे जाकर जो कुछ कहना-सुनना हो, कह सुन लेना। मैं पीछे से जाऊंगी।

गोबर ने कहा-नहीं-नहीं, पहले तुम जाना और कहना, मैं बाजार से सौदा बेचकर घर जा रही थी। रात हो गई है, अब कैसे जाऊं? तब तक मैं आ जाऊंगा।

झुनिया ने चिंतित मन से कहा-तुम्हारी अम्मां बड़ी गुस्सैल हैं। मेरा तो जी कांपता है। कहीं मुझे मारने लगें तो क्या करूंगी?

गोबर ने धीरज दिलाया-अम्मां की आदत ऐसी नहीं। हम लोगों तक को तो कभी एक तमाचा मारा नहीं, तुम्हें क्या मारेंगी। उनको जो कुछ कहना होगा, मुझे कहेंगी, तुमसे तो बोलेंगी भी नहीं।

गांव समीप आ गया। गोबर ने ठिठककर कहा-अब तुम जाओ।

झुनिया ने अनुरोध किया-तुम भी देर न करना।

'नहीं-नहीं, छन भर में आता हूं, तू चल तो।'