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गोदान : 131
 

तेरह

तेरह

गोबर अंधेरे ही मुंह उठा और कोदई से बिदा मांगी। सबको मालूम हो गया था कि उसका ब्याह हो चुका है, इसलिए उससे कोई विवाह-संबंधी चर्चा नहीं की। उसके शील-स्वभाव ने सारे घर को मुग्ध कर लिया था। कोदई की माता को तो उसने ऐसे मीठे शब्दों में और उसके मातृपद की रक्षा करते हुए, ऐसा उपदेश दिया कि उसने प्रसन्न होकर आशीर्वाद दिया था। 'तुम बड़ी हो माताजी, पूज्य हो। पुत्र माता के रिन से सौ जनम लेकर भी उरिन नहीं हो सकता, लाख जनम लेकर भी उरिन नहीं हो सकता। करोड़ जनम लेकर भी नहीं....'

बुढ़िया इस संख्यातीत श्रद्धा पर गदगद हो गई। इसके बाद गोबर ने जो कुछ कहा, उसमें बुढ़िया को अपना मंगल ही दिखाई दिया। वैद्य एक बार रोगी को चंगा कर दे, फिर रोगी उसके हाथों विष भी खुशी से पी लेगा-अब जैसे आज ही बहू घर से रूठ कर चली गई, तो किसकी हेठी हुई। बहू को कौन जानता है? किसकी लड़की है, किसकी नातिन है, कौन जानता है। संभव है, उसका बाप घसियारा ही रहा हो...।

बुढ़िया ने निश्चयात्मक भाव से कहा-घसियारा तो है ही बेटा, पक्का घसियारा। सबेरे उसका मुंह देख लो, तो दिन-भर पानी न मिले।

गोबर बोला- तो ऐसे आदमी की क्या हंसी हो सकती है। हंसी हुई तुम्हारी और तुम्हारे आदमी की। जिसने पूछा, यही पूछा कि किसकी बहू है? फिर यह अभी लड़की है, अबोध अल्हड़। नीच माता-पिता की लड़की है, अच्छी कहां से बन जाय। तुमको तो बूढ़े तोते को राम-नाम पढ़ाना पड़ेगा। मारने से तो वह पढ़ेगा नहीं, उसे तो सहज स्नेह ही से पढ़ाया जा सकता है। ताड़ना भी दो, लेकिन उसके मुंह मत लगो। उसका तो कुछ नहीं बिगड़ता, तुम्हारा अपमान होता है।

जब गोबर चलने लगा, तो बुढ़िया ने खाड़ और सतू मिलाकर उसे खाने को दिया। गांव के और कई आदमी मजूरी की टोह में शहर जा रहे थे। बातचीत में रास्ता कट गया और नौ बजते-बजते सब लोग अमीनाबाद के बाजार में आ पहुंचे। गोबर हैरान था, इतने आदमी नगर में कहां से आ गए? आदमी पर आदमी गिरा पड़ता था।

उस दिन बाजार में चार-पांच सौ मजदूरों से कम न थे। राज और बढ़ई और लोहार और बेलदार और खाट बुनने वाले और टोकरी ढोने वाले और संगतराश सभी जमा थे। गोबर यह जमघट देखकर निराश हो गया। इतने सारे मजदूरों को कहां काम मिला जाता है। और उसके हाथ तो कोई औजार भी नहीं है। कोई क्या जानेगा कि वह क्या काम कर सकता है। कोई उसे क्यों रखने लगा? बिना औजार के उसे कौन पूछेगा?

धीरे-धीरे एक-एक करके मजदूरों को काम मिलता जा रहा था। कुछ लोग निराश होकर घर लौटे जा रहे थे। अधिकतर वह बूढ़े और निकम्मे बच रहे थे, जिनका कोई पुछत्तर न था। और उन्हीं में गोबर भी था। लेकिन अभी आज उसके पास खाने को है। कोई गम नहीं।

सहसा मिर्जा खुर्शेद ने मजदूरों के बीच में आकर ऊंची आवाज से कहा-जिसको छ: आने रोज पर काम करना हो, वह मेरे साथ आए। सबको छ: आने मिलेंगे पांच बजे छुट्टी मिलेगी।

दस-पांच राजों और बढ़इयों को छोड़कर सब-के-सब उनके साथ चलने को तैयार हो गए। चार सौ फटेहालों की एक विशाल सेना सज गई। आगे मिर्जा थे, कधे पर मोटा सोटा रखे