‘मैं ठीक-ठाक करके तब तुमसे कहूंगा। बहुत उतावली करने से भी काम बिगड़ जाता है।'
'जब तुम्हारी इच्छा हो तब चलो। उतावली काहे की? इस कबरी पर मन ललचाया हो,तो ले लो।'
‘यह गाय मेरे मान की नहीं है दादा। मैं तुम्हें नुकसान नहीं पहुंचाना चाहता। अपना धरम यह नहीं है कि मित्रों का गला दबाएं। जैसे इतने दिन बीते हैं, वैसे और भी बीत जाएंगे।'
'तुम तो ऐसी बातें करते हो होरी , जैसे हम-तुम दो हैं। तुम गाय ले जाओ, दाम जो चाहे देना। जैसे मेरे घर रही, वैसे तुम्हारे घर रही। अस्सी रुपये में ली थी, तुम अस्सी रुपये ही देना देना। जाओ।'
'लेकिन मेरे पास नगद नहीं है दादा, समझ लो।'
'तो तुमसे नगद मांगता कौन है भाई?'
होरी को छाती गज-भर की हो गई। अस्सी रुपये में गाय महंगी न थी। ऐसा अच्छा डील-डोल, दोनों जून में छ:-सात सेर दूध, सीधी ऐसी कि बच्चा भी दुह ले। इसका तो एक-एक बाछा सौ-सौ का होगा। द्वार पर बंधेगी तो द्वार की शोभा बढ़ जायगी। उसे अभी कोई चार सौ रुपए देने थे, लेकिन उधार को वह एक तरह से मुफ्त समझता था। कहीं भोला की सगाई ठीक हो गई, तो साल-दो साल तो वह बोलेगा भी नहीं। सगाई न भी हुई, तो होरी का क्या बिगड़ता है। यही तो होगा, भोला बार-बार तगादा करने आएगा, बिगड़ेगा, गालियां देगा, लेकिन होरी को इसकी ज्यादा शर्म न थी। इस व्यवहार का वह आदी था। कृषक के जीवन का तो यह प्रसाद है। भोला के साथ वह छल कर रहा था और यह व्यापार उसकी मर्यादा के अनुकूल न था। अब भी लेन-देन में उसके लिए लिखा-पढ़ी होने और न होने में कोई अंतर न था। सूखे-बूड़े की विपदाएं उसके मन को भीरु बनाए रहती थीं। ईश्वर का रूद्र रूप सदैव उसके सामने रहता था, पर यह छल उसकी नीति में छल न था। यह केवल स्वार्थ-सिद्धि थी और यह कोई बुरी बात न थी। इस तरह का छल तो वह दिन रात करता रहता था। घर में दो-चार रुपये पड़े रहने पर भी महाजन के सामने कसमें खा जाता था कि एक पाई भी नहीं है। सन को कुछ गीला कर देना और रुई में कुछ बिनौले भर देना उसकी नीति में जायज था और यहां तो केवल स्वार्थ न था, थोड़ा सा मनोरंजन भी था। बुड्ढों का बुढ़भस हास्यास्पद वस्तु है और ऐसे बुड्ढों से अगर कुछ ऐंठ भी लिया जाय, तां कोई दोष-पाप नहीं।
भोला ने गाय की पगहिया होरी के हाथ में देते हुए कहा-ले जाओ महतो, तुम भी क्या
याद करोगे। ब्याते ही छ: सेर दूध लेना। चलो, मैं तुम्हारे घर तक पहुंचा दूँ। साइत तुम्हें अनजान
समझकर रास्ते में कुछ दिक करे। अब तुमसे सच कहता हूं . मालिक नब्बे रुपये देते थे।
उनके यहां गऊओं की क्या कदर। मुझसे लेकर किसी हाकिम-हुक्काम को दे देते। हाकिमों
को गऊ की सेवा से मतलब? वह तो खून चूसना-भर गनते हैं। जब तक दूध देती, रखते, फिर
किसी के हाथ बेच देते। किसके पल्ले पड़ती, कौन जाने। रुपया ही सब कुछ नहीं है भैया, कुछ
अपना धरम भी तो है। तुम्हारे घर आराम से रहेगी तो। यह न होगा कि तुम आप खाकर सो
रहो और गऊ भूखी खड़ी रहे। उसकी सेवा करोगे, प्यार करोगे, चुमकारोगे। गऊ हमें आसिरवाद
देगी। तुमसे क्या कहूं भैया, घर में चंगुल-भर भी भूसा नहीं रहा। रुपये सब बाजार में निकल