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162 : प्रेमचंद रचनावली-6
 


रायसाहब ने फटकारा-अगर यह व्यवहार रिश्वत नहीं है तो रिश्वत क्या है, जरा मुझे समझा दीजिए। क्या आप समझते हैं, आपको छोड़कर और सभी गधे हैं, जो निस्वार्थ भाव से आपका घाटा पूरा करते रहते हैं? निकालिए अपनी बही और बतलाइए, अब तक आपको मेरी रियासत से कितना मिल चुका है? मुझे विश्वास है, हजारों की रकम निकलेगी। अगर आपको स्वदेशी-स्वदेशी चिल्लाकर विदेशी दवाओं और वस्तुओं का विज्ञापन छापने में शरम नहीं आती, तो मैं अपने असामियों से डांड़, तावान और जुर्माना लेते क्यों शरमाऊं? यह न समझिए कि आप ही किसानों के हित का बीड़ा उठाए हुए हैं। मुझे किसानों के साथ जलना-मरना है, मुझसे बढ़कर दूसरा उनका हितेेच्छु नहीं हो सकता, लेकिन मेरी गुजर कैसे हो? अफसरों को दावतें कहां से दूं, सरकारी चंदे कहां से दूं। खानदान के सैकड़ों आदमियों की जरूरतें कैसे पूरी करूं? मेरे घर का क्या खर्च है, यह शायद आप जानते हैं, तो क्या मेरे घर में रुपये फलते हैं? आएगा तो असामियों ही के घर से। आप समझते होंगे, जमींदार और ताल्लुकेदार सारे संसार का सुख भोग रहे हैं। उनकी असली हालत का आपको ज्ञान नहीं, अगर वह धर्मात्मा बनकर रहें, तो उनका जिंदा रहना मुश्किल हो जाय। अफसरों को डालियां न दें, तो जेलखाना घर हो जाय। हम बिच्छु नहीं हैं कि अनायास ही सबको डंक मारते फिरें। न गरीबों का गला दबाना कोई बड़े आनंद का काम है, लेकिन मर्यादाओं का पालन तो करना ही पड़ता है। जिस तरह आप मेरी रईसी का फायदा उठाना चाहते हैं, उसी तरह और सभी हमें सोने की मुर्गी समझते हैं। आइए मेरे बंगले पर तो दिखाऊं कि सुबह से शाम तक कितने निशाने मुझ पर पड़ते हैं। कोई काश्मीर से शाल-दुशाला लिए चला आ रहा है, कोई इत्र और तंबाकू का एजेंट है, कोई पुस्तकों और पत्रिकाओं का, कोई जीवन बीमे का, कोई ग्रामोफोन लिए सिर पर सवार है, कोई कुछ। चंदे वाले तो अनगिनती। क्या सबके सामने अपना दुखड़ा लेकर बैठ जाऊं? ये लोग मेरे द्वार पर दुखड़ा सुनाने आते हैं? आते हैं मुझे उल्लू बनाकर मुझसे कुछ ऐंठने के लिए। आज मर्यादा का विचार छोड़ दूं, तो तालियां पिटने लगें। हुक्काम को डालियां न दूं, तो बागी समझा जाऊं। तब आप अपने लेखों से मेरी रक्षा न करेंगे। कांग्रेस में शरीक हुआ, उसका तावान अभी तक देता जाता हूं। काली किताब में नाम दर्ज हो गया। मेरे सिर पर कितना कर्ज है, यह भी कभी आपने पूछा है? अगर सभी महाजन डिग्रियां करा लें, तो मेरे हाथ की यह अंगूठी तक बिक जायगी। आप कहेंगे, क्यों यह आडंबर पालते हो? कहिए, सात पुश्तों से जिस वातावरण में पला हूं, उससे अब निकल नहीं सकता। घास छीलना मेरे लिए असंभव है। आपके पास जमीन नहीं, जायदाद नहीं, मर्यादा का झमेला नहीं, आप निर्भीक हो सकते हैं, लेकिन आप भी दुम दबाए बैठे रहते हैं। आपको कुछ खबर है, अदालतों में कितनी रिश्वतें चल रही हैं, कितने गरीबों का खून हो रहा है, कितनी देवियां भ्रष्ट हो रही हैं। है बूता लिखने का? सामग्री मैं देता हूं, प्रमाण सहित।

ओंकारनाथ कुछ नर्म होकर बोले-जब कभी अवसर आया है, मैंने कदम पीछे नहीं हटाया।

रायसाहब भी कुछ नर्म हुए-हां, मैं स्वीकार करता हूं कि दो-एक मौकों पर आपने जवांमर्दी दिखाई, लेकिन आपकी निगाह हमेशा अपने लाभ की ओर रही है, प्रजा हित की ओर नहीं। आंखें न निकालिए और न मुंह लाल कीजिए। जब कभी आप मैदान में आए हैं,