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164 : प्रेमचंद रचनावली-6
 


‘इसी का यह फल है कि आज आपका इतना सम्मान है। मैं एक प्रस्ताव करना चाहता हूं। मालूम नहीं, आप उसे स्वीकार करेंगे या नहीं। आप मेरी ओर से सौ आदमियों के नाम फ्री पत्र जारी कर दीजिए। चंदा मैं दे दूंगा।

ओंकारनाथ ने कृतज्ञता से सिर झुकाकर कहा-मैं धन्यवाद के साथ आपका दान स्वीकार करता हूं। खेद यही है कि पत्रों की ओर से जनता कितनी उदासीन है। स्कूल और कालिजों और मंदिरों के लिए धन की कमी नहीं है, पर आज तक एक भी ऐसा दानी न निकला, जो पत्रों के प्रचार के लिए दान देता, हालांकि जन-शिक्षा का उद्देश्य जितने कम खर्च में पत्रों से पूरा हो सकता है, और किसी तरह नहीं हो सकता है जैसे शिक्षालयों को संस्थाओं द्वारा सहायता मिला करती है, एसे ही अगर पत्रकारों को मिलने लगे, तो इन बेचारों को अपना जितना समय और स्थान विज्ञापनों की भेंट करना पड़ता है, वह क्यों करना पड़े? मैं आपका बड़ा अनुगृहीत हूं।

रायसाहब बिदा हो गए। ओंकारनाथ के मुख पर प्रसन्नता की झलक न थी। रायसाहब ने किसी तरह की शर्त न की थी, कोई बंधन न लगाया था, पर ओंकारनाथ आज इतनी करारी फटकार पाकर भी इस दान को अस्वीकार न कर सके। परिस्थिति ऐसी आ पड़ी थी कि उन्हें उबरने का कोई उपाय ही न सूझ रहा था। प्रेस के कर्मचारियों का तीन महीने का वेतन बाकी पड़ा हुआ था। कागज वाले के एक हजार से ऊपर आ रहे थे, यही क्या कम था कि उन्हें हाथ नहीं फैलाना पड़ा।

उनकी स्त्री गोमती ने आकर विद्रोह के स्वर में कहा-क्या अभी भोजन का समय नहीं आया, या यह भी कोई नियम है कि जब तक एक बज जाय, जगह से न उठो? कब तक कोई चूल्हा अगोरता रहे ?

ओंकारनाथ ने दु:खी आंखों से पत्नी की ओर देखा। गोमती का विद्रोह उड़ गया। वह उनकी कठिनाइयों को समझती थी। दूसरी महिलाओं के वस्त्राभूषण देखकर कभी-कभी उसके मन में विद्रोह के भाव जाग उठते थे और वह पति को दो-चार जली कटी सुना जाती थी, पर वास्तव में यह क्रोध उनके प्रति नहीं, अपने दुर्भाग्य के प्रति था, और इसकी थोड़ी-सी आंच अनायास ही ओंकारनाथ तक पहुंच जाती थी। वह उनका तपस्वी जीवन देखकर मन में कुढ़ती थी और उनसे सहानुभूति भी रखती थी। बस, उन्हें थोड़ा-सा सनकी समझती थी। उनका उदास मुंह देखकर पूछा-क्यों उदास हो, पेट में कुछ गड़बड़ है क्या?

ओंकारनाथ को मुस्कराना पड़-कौन उदास है, मैं? मुझे तो आज जितनी खुशी है, उतनी अपने विवाह के दिन भी न हुई थी। आज सबेरे पंद्रह सौ की बोहनी हुई। किसी भाग्यवान् का मुंह देखा था।

गोमती को विश्वास न आया, बोली-झूठे हो, तुम्हें पंद्रह सौ कहां मिल जाते हैं? पंद्रह रुपये कहो, मान लेती हूं।

'नहीं-नहीं, तुम्हारे सिर की कसम, पंद्रह सौ मारे। अभी रायसाहब आए थे। सौ ग्राहकों का चंदा अपनी तरफ से देने का वचन दे गए हैं।'

गोमती का चेहरा उतर गया-तो मिल चुके!

'नहीं, रायसाहब वादे के पक्के हैं।'

‘मैंने किसी ताल्लुकेदार को वादे का पक्का देखा ही नहीं। दादा एक ताल्लुकेदार के नौकर