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पृष्ठ:गोदान.pdf/१६९

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गोदान:169
 


नहीं है।

'यह सब बहाना है। बड़ा खराब आदमी है।'

'मुझे तो बड़ा भला आदमी लगता है। क्या खराबी है उसमें?'

'तुम नहीं जानतीं? सिलिया चमारिन को रखे हुए है।'

'तो इसी से खराब आदमी हो गया?'

'और काहे से आदमी खराब कहा जाता है?'

'तुम्हारे भैया भी तो मुझे लाये हैं। वह भी खराब आदमी हैं?'

सोना ने इसका जवाब न देकर कहा-मेरे घर में फिर कभी आएगा, तो दुतकार दूंगी।

'और जो उससे तुम्हारा ब्याह हो जाय?'

सोना लजा गई-तुम तो भाभी, गाली देती हो।

'क्यों, इसमें गाली की क्या बात है?'

'मुझसे बोले, तो मुंह झुलस दूं।'

'तो क्या तुम्हारा ब्याह किसी देवता से होगा। गांव में ऐसा सुंदर, सजीला जवान दूसरा कौन है?'

'तो तुम चली जाओ उसके साथ, सिलिया से लाख दर्जे अच्छी हो।'

'मैं क्यों चली जाऊं? मैं तो एक के साथ चली आई। अच्छा है या बुरा।'

'तो मैं भी जिसके साथ ब्याह होगा, उसके साथ चली जाऊंगी, अच्छा हो या बुरा।'

'और जो किसी बूढ़े के साथ ब्याह हो गया?'

सोना हंसी-मैं उसके लिए नरम-नरम रोटियां पकाऊंगी, उसकी दवाइयां कूटूंगी, छानूंगी, उसे हाथ पकड़कर उठाऊंगी, जब मर जायगा, तो मुंह ढांपकर रोऊंगी।

'और जो किसी जवान के साथ हुआ?'

'तब तुम्हारा सिर, हां नहीं तो।'

'अच्छा बताओ, तुम्हें बूढ़ा अच्छा लगता है कि जवान।'

'जो अपने को चाहे, वही जवान है, न चाहे वही बूढ़ा है।'

'दैव करे, तुम्हारा ब्याह किसी बूढे से हो जाय, तो देखूं, तुम उसे कैसे सोहती हो। तब मनाओगी, किसी तरह यह निगोड़ा मर जाय, तो किसी जवान को लेकर बैठ जाऊं।'

'मुझे तो उस बूढ़े पर दया आए।'

इस साल इधर एक शक्कर का मिल खुल गया था। उसके कारिंदे और दलाल गांव-गांव घूमकर किसानों की खड़ी ऊख मोल ले लेते थे। वही मिल था, जो मिस्टर खन्ना ने खोला था। एक दिन उसका कारिंदा इस गांव में भी आया। किसानों ने जो उससे भाव-ताव किया, तो मालूम हुआ, गुड़ बनाने में कोई बचत नहीं है। जब घर में ऊख पेरकर भी यही दाम मिलता है, तो पेरने की मेहनत क्यों उठाई जाय? सारा गांव खड़ी ऊख बेचने को तैयार हो गया। अगर कुछ कम भी मिले, तो परवाह नहीं। तत्काल तो मिलेगा? किसी को बैल लेना था, किसी को बाकी चुकाना था, कोई महाजन से गला छुड़ाना चाहता था। होरी को बैलों की गोई लेनी थी। अबकी ऊख की पैदावार अच्छी न थी, इसलिए यह डर भी था कि माल न पड़ेगा। और जब गुड़ के भाव मिल की चीनी मिलेगी, तो गुड़ लेगा ही कौन? सभी ने बयाने ले लिए। होरी को कम-से-कम सौ रुपये की आशा थी। इतने में एक