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पृष्ठ:गोदान.pdf/१७१

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गोदान:171
 


फंदा और जकड़ जाय बला से, पर गला छुड़ाने के लिए जोर तो लगाना ही पड़ेगा। यही तो होगा झिंगुरी घर-द्वार नीलाम करा लेंगे, करा लें नीलाम। मैं तो चाहता हूं कि हमें कोई रुपये न दे, हमें भूखों मरने दे, लातें खाने दे, एक पैसा भी उधार न दे, लेकिन पैसा वाले उधार न दें तो सूद कहां से पाएं? एक हमारे ऊपर दावा करता है, तो दूसरा हमें कुछ कम सूद पर रुपये उधार देकर अपने जाल में फंसा लेता है। मैं तो उसी दिन रुपये लेने जाऊंगा, जिस दिन झिंगुरी कहीं चला गया होगा।

होरी का मन भी विचलित हुआ-हां, यह ठीक है।

'ऊख तुलवा देंगे। रुपये दांव-घात देखकर ले आयंगे।'

'बस-बस, यही चाल चलो।'

दूसरे दिन प्रातकाल गांव के कई आदमियों ने ऊख काटनी शुरू की। होरी भी अपने खेत में गंड़ासा लेकर पहुंचा। उधर से सोभा भी उसकी मदद को आ गया। पुनिया, झुनिया, धनिया, सोना सभी खेत में जा पहुंचीं। कोई ऊख काटता था, कोई छोलता था, कोई पूल बांधता था। महाजनों ने जो ऊख कटते देखी, तो पेट में चूहे दौड़े। एक तरफ से दुलारी दौड़ी, दूसरी तरफ से मंगरूसाह, तीसरी ओर से मातादीन और पटेश्वरी और झिंगुरी के पियादे। दुलारी हाथ-पांव में मोटे-मोटे चांदी के कड़े पहने, कानों में सोने का झुमका, आंखों में काजल लगाए, बूढ़े यौवन को रंगे-रंगाए आकर बोली-पहले मेरे रुपये दे दो, तब ऊख काटने दूंगी। मैं जितना गम खाती हूं, उतना ही तुम शेर होते हो। दो साल से एक धेला सूद नहीं दिया, पचास तो मेरे सूद के होते हैं।

होरी ने चिचियाकर कहा-भाभी, ऊख काट लेने दो, इसके रुपये मिलते हैं, तो जितना हो सकेगा, तुमको भी दूंगा। न गांव छोड़कर भागा जाता हूं, न इतनी जल्दी मौत ही आई जाती है। खेत में खड़ी ऊख तो रुपये न देगी?

दुलारी ने उसके हाथ से गंड़ासा छीनकर कहा-नीयत इतनी खराब हो गई तुम लोगों की, तभी तो बरक्कत नहीं होती।

आज पांच साल हुए, होरी ने दुलारी से तीस रुपये लिए थे। तीन साल में उसके सौ रुपये हो गए, तब स्टांप लिखा गया। दो साल में उस पर पचास रुपया सूद चढ़ गया था।

होरी बोला-सहुआइन, नीयत तो कभी खराब नहीं की, और भगवान् चाहेंगे, तो पाई-पाई चुका दूंगा। हां, आजकल तंग हो गया हूं, जो चाहे कह लो।

सहुआइन को जाते देर नहीं हुई कि मंगरू साह पहुंचे। काला रंग, तोंद कमर के नीचे लटकती हुई, दो बड़े-बड़े दांत सामने जैसे काट खाने को निकले हुए, सिर पर टोपी, गले में चादर, उम्र अभी पचास से ज्यादा नहीं, पर लाठी के सहारे चलते थे। गठिया का मरज हो गया था। खांसी भी आती थी। लाठी टेककर खड़े हो गए और होरी को डांट बताई-पहले हमारे रुपये दे दो होरी, तब ऊब काटो। हमने रुपये उधार दिए थे, खैरात नहीं थे। तीन-तीन साल हो गए, न सूद न ब्याज, मगर यह न समझना कि तुम मेरे रुपये हजम कर जाओगे मैं तुम्हारे मुर्दे से भी वसूल कर लूंगा।

सोभा मसखरा था। बोला-तब काहे को घबड़ाते हो साहजी, इनके मुर्दे ही से वसूल कर लेना। नहीं, एक-दो साल के आगे-पीछे दोनों ही सरग में पहुंचोगे? वहीं भगवान् के सामने अपना हिसाब चुका लेना।