पृष्ठ:गोदान.pdf/१७५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
गोदान : 175
 


सोना ने दोनों हाथों से उसका मुंह दबाकर कहा-बस, चुप ही रहना, नहीं कहे देती हूं। अभी जाकर अम्मां से मातादीन की सारी कलई खोल दूं तो रोने लगो

झुनिया ने पूछा-क्या कह दोगी अम्मां से? कहने को कोई बात भी हो। जब वह किसी बहाने से घर में आ जाते हैं, तो क्या कह दें कि निकल जा, फिर मुझसे कुछ ले तो नहीं जाते? कुछ अपना ही दे जाते हैं। सिवाय मीठी-मीठी बातों के वह झुनिया से कुछ नहीं पा सकते। और अपनी मीठी बातों को महंगे दामों पर बेचना भी मुझे आता है। मैं ऐसी अनाड़ी नहीं कि किसी के झांसे में आ जाऊं। हां, जब जान जाऊंगी कि तुम्हारे भैया ने वहां किसी को रख लिया है, तब की नहीं चलाती। तब मेरे ऊपर किसी का कोई बंधन न रहेगा। अभी तो मुझे विस्वास है कि वह मेरे हैं और मेरे कारन उन्हें गली-गली ठोकर खाना पड़ रहा है। हंसने-बोलने की बात न्यारी है, पर मैं उनसे विस्वासघात न करूंगी। जो एक से दो का हुआ, वह किसी का नहीं रहता।

सोभा ने आकर होरी को पुकारा और पटेश्वरी के रुपये उसके हाथ में रखकर बोला-भैया, तुम जाकर ये रुपये लाला को दे दो, मुझे उस घड़ी न जाने क्या हो गया था।

होरी रुपये लेकर उठा ही था कि शंख की ध्वनि कानों में आई। गांव के उस सिरे पर ध्यानसिंह नाम के एक ठाकुर रहते थे। पल्टन में नौकर थे और कई दिन हुए, दस साल के बाद रजा लेकर आए थे। बगदाद, अदन, सिंगापुर, बर्मा-चारों तरफ घूम चुके थे। अब ब्याह करने की धुन में थे। इसीलिए पूजा-पाठ करके ब्राह्मणों को प्रसन्न रखना चाहते थे।

होरी ने कहा-जान पड़ता है, सातों अध्याय पूरे हो गए। आरती हो रही है।

सोभा बोला-हां, जान तो पड़ता है, चलो आरती ले लें।

होरी ने चिंतित भाव से कहा-तुम जाओ, मैं थोड़ी देर में आता हूं।

ध्यानसिंह जिस दिन आए थे, सबके घर सेर-सेर भर मिठाई बैना भेजी थी। होरी से जब कभी रास्ते में मिल जाते, कुशल पूछते। उनकी कथा में जाकर आरती कुछ न देना अपमान की बात थी।

आरती का थाल उन्हीं के हाथ में होगा। उनके सामने होरी कैसे खाली हाथ आरती ले लेगा। इससे तो कहीं अच्छा है वह कथा में जाय ही नहीं। इतने आदमियों में उन्हें क्या याद आएगी कि होरी नहीं आया कोई रजिस्टर लिए तो बैठा नहीं है कि कौन आया, कौन नहीं आया। वह जाकर खाट पर लेट रहा।

मगर उसका हृदय मसोस-मसोसकर रह जाता था। उसके पास एक पैसा भी नहीं है। तांबे का एक पैसा। आरती के पुण्य और माहात्म्य का उसे बिल्कुल ध्यान न था। बात थी केवल व्यवहार की। ठाकुरजी की आरती तो वह केवल श्रद्धा की भेंट देकर ले सकता था, लेकिन मर्यादा कैसे तोड़े, सबकी आंखों में हेठा कैसे बने।

सहसा वह उठ बैठा। क्यों मर्यादा की गुलामी करे? मर्यादा के पीछे आरती का पुण्य क्यो छोड़े? लोग हंसेंगे, हंस लें। उसे परवा नहीं है। भगवान् उसे कुकर्म से बचाए रखें, और वह कुछ नहीं चाहता।

वह ठाकुर के घर की ओर चल पड़ा।