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180 : प्रेमचंद रचनावली-6
 


आक्षेप करके उसके साथ अन्याय कर रही है। क्या मेरी दशा को देखकर उसकी आंखे न खुलती होंगी? विवाहित जीवन की दुर्दशा आंखों देखकर अगर वह इस जाल में नहीं फंसती, तो क्या बुरा करती है।

चिड़ियाघर में चारों तरफ सन्नाटा छाया हुआ था। गोविन्दी ने तांगा रोक दिया और बच्चे को लिए हरी दूब की तरफ चली, मगर दो ही तीन कदम चली थी कि चप्पल पानी में डूब गए। अभी थोड़ी देर पहले लॉन सींचा गया था और घास के नीचे पानी बह रहा था। उस उतावली में उसने पीछे न फिरकर एक कदम और आगे रखा तो पांव कीचड़ में सन गए। उसने पांव की ओर देखा। अब यहां पांव धोने के लिए पानी कहां से मिलेगा? उसकी सारी मनोव्यथा लुप्त हो गई। पांव धोकर साफ करने की नई चिंता हुई। उसकी विचारधारा रुक गई। जब तक पांव साफ न हो जायं, वह कुछ नहीं सोच सकती।

सहसा उसे एक लंबा पाइप घास में छिपा नजर आया, जिसमें से पानी बह रहा था। उसने जाकर पांव धोए, चप्पल धोए, हाथ-मुंह धोया, थोड़ा-सा पानी चुल्लू में लेकर पिया और पाइप के उस पार सूखी जमीन पर जा बैठी। उदासी में मौत की याद तुरंत आती है। कहीं वह यहीं बैठे-बैठे मर जाय, तो क्या हो? तांगे वाला तुरंत जाकर खन्ना को खबर देगा। खन्ना सुनते ही खिल उठेंगे, लेकिन दुनिया को दिखाने के लिए आंखों पर रुमाल रख लेंगे। बच्चों के लिए खिलौने और तमाशे मां से प्यारे हैं। यह है उसका जीवन, जिसके लिए कोई चार बूंद आंसू बहाने वाला भी नहीं। तब उसे वह दिन याद आया, जब उसकी सास जीती थी और खन्ना उड़ंकू न हुए थे, तब उसे सास का बात-बात पर बिगड़ना बुरा लगता था, आज उसे सास के उस क्रोध में स्नेह का रस घुला जान पड़ रहा था। तब वह सास से रूठ जाती थी और सास उसे दुलारकर मनाती थी। आज वह महीनों रूठी पड़ी रहे। किसे परवा है? एकाएक उसका मन उड़कर माता के चरणों में जा पहुँचा। हाय! आज अम्माँ होतीं, तो क्यों उसकी यह दुर्दशा होती! उसके पास और कुछ न था, स्नेह-भरी गोद तो थी, प्रेम-भरा अंचल तो था, जिसमें मुँह डालकर वह रो लेती। लेकिन नहीं, वह रोएगी नहीं, उस देवी को स्वर्ग में दुःखी न बनाएगी, मेरे लिए वह जो कुछ ज्यादा से ज्यादा कर सकती थी, वह कर गई? मेरे कर्मो की साथिन होना तो उनके वश की बात न थी। और वह क्यों रोए? वह अब किसी के अधीन नहीं है, वह अपने गुजर-भर को कमा सकती है। वह कल ही गाँधी-आश्रम से चीजें लेकर बेचना शुरू कर देगी। शर्म किस बात की? यही तो होगा, लोग उँगली दिखाकर कहेंगे--वह जा रही है खन्ना की बीबी। लेकिन इस शहर में रहूं ही क्यों? किसी दूसरे शहर में क्यों न चली जाऊं, जहाँ मुझे कोई जानता ही न हो। दस-बीस रुपए कमा लेना ऐसा क्या मुश्किल है। अपने पसीने की कमाई तो खाऊंगी, फिर तो कोई मुझ पर रोब न जमाएगा। यह महाशय इसीलिए तो इतना मिजाज करते हैं कि वह मेरा पालन करते हैं। मैं अब खुद अपना पालन करूंगी।

सहसा उसने मेहता को अपनी तरफ आते देखा। उसे उलझन हुई। इस वक्त वह सम्पूर्ण एकान्त चाहती थी। किसी से बोलने की इच्छा न थी। मगर यहाँ भी एक महाशय आ ही गए। उस पर बच्चा भी रोने लगा था।

मेहता ने समीप आकर विस्मय से पूछा-आप इस वक्त यहां कैसे आ गईं?

गोविन्दी ने बालक को चुप कराते हुए कहा--उसी तरह जैसे आप आ गए?